दहेज एक अभिशाप - by Lokesh Kumar Upadhyay


आधुनिकता के नए युग मे,

ये भी अभिशप्त हैं साहब

खरीद-फरोख्त का सौदा

मानवों के द्वारा मानवों

का बड़े जोर से है !

भूल जाते हैं अक्सर 

दौलत के 'नशे' में 

दौलत ही सब कुछ 

नहीं होती साहब,

वो तो अक्सर मिल ही जाती हैं ।


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एक गुणी इंसान का चयन

भी दौलत से कम नहीं होता,

दौलत के अंध में जुड़े रिश्ते

अक़्सर बिखरते हैं जजों की

"मेज" पर।

'फासले' हो जाते है उन 'फैसलों' में,

जो कभी लिए थे बड़े फ़क्र से

मैंने रिश्ता बड़े घर में किया !

और आ जाती हैं इतनी दूरियां

ये कभी मिले ही नहीं 'एक-दूजे' से।

इस अभिशाप को बढ़ावा देने

वाला भी आज का इंसान हैं,

और मिटाने की पहल करने

वाला भी इंसान ही होगा।

कहना सरल है लेकिन

उस पथ पर चलना बहुत कठिन,

मैंने कुछ विभूति ऐसी 

भी देखी हैं,

जो वादे ऐसा करती थी,

जैसे चुनावी रण में करते

'नेतागण'।


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दहेज लेते वक़्त कह देते हैं,

माँगता कौन हैं साहब

मर्जी से दिया हैं खुद ने,

अपनी 'शान-शौकत' के लिए।

और वो खुशी कुछ दिन बाद

एक नए सिलसिले के साथ

बदलती हैं,

नए रूप में और पहुँच जाती हैं

जजों की मेज पर,,,,

दहेजरूपी 'रकम'

को खर्च करो 'नेकी' के

काम में,

नाम भी हो और देश का

'उत्थान' भी,

आओ सब मिलकर करें

प्रण इस "अभिशाप" को मिटाने का

फिर शायद कोई 'भ्रूण'

धराशाही हो इस 'धरा' पर

आने से पहले......

जय भारत

         जय हिन्द।।




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