वसीयत - by Deepak Sharma
वसीयत
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हरिप्रसाद तिवारी जी का आज जन्मदिन है, पूरे घर में उत्सव एवं हर्षोल्लास का माहोल है, पूरा घर बेटे-बहुओं, पोते-पोतियों से भरा हुआ है, सभी का प्रेम, स्नेह और अपनापन देखकर हरिप्रसाद जी गदगद हैं।
हरिप्रसाद जी की कोई संतान नहीं है, पत्नि का भी पिछले वर्ष निधन हो गया तो उनके छोटे भाई के दोनो पुत्रों एवं उनकी बहुओं, बच्चों के द्वारा उनका बहुत ही अच्छी तरह से देखभाल किया जा रहा था। बेटों-बहुओं में तिवारी जी की सेवा करने की मानो होड़ से लगी रहती थी।
सोनी जी हरिप्रसाद जी के अभिन्न मित्र हैं। वे भी अपने मित्र की इतनी देखभाल एवं सेवा से अत्यधिक प्रसन्न हैं। एक दिन दोनों मित्र बेठे हुए पुराने दिनों की यादें ताजा कर रहे थे, तो सोनी जी बोले - "यार तूने जीवन भर बस कमाया ही कमाया है, कभी दान पुण्य नहीं किया। अब जबकि जीवन के कुछ ही दिन शेष हैं, तेरे भतीजे-बहुएँ और नाती-पोते निस्वार्थ भाव से इतनी सेवा कर रहें हैं, वे सभी लोग आर्थिक रूप से भी सक्षम हैं, सब अच्छा कमा खा रह हैं, तो क्यों ना तू अपना यह बंगला और पैसे पुण्य काम में लगा दे, ताकि तेरा अगल जन्म सुधर जाए।" तिवारी जी को सोनी जी की बात अच्छी लगी। उनके द्वारा धन-दौलत का संग्रह तो वास्तव में काफी कर लिया था, लेकिन कभी दान पुण्य करने की और ध्यान ही नहीं गया। अगले दिन तिवारी ने सोनी जी को बुलाया और बोले - "यार तू सही कह रहा था, की मुझे अपनी धन दौलत को अब पुण्य कार्यो में लगाना चाहिए क्योंकि मेरे जीवन का अब कोई ठिकाना नहीं है और मेरे भतीजे-बहुएँ और नाती-पोते सभी लोग निस्वार्थ भाव से मेरी सेवा कर रहे है, उन्हे भी मेरे पैसों का कोई लालच नहीं है।" सोनी जी बोले - "ऐसा कर, तू अपने बंगले एवं जमा पूंजी की वसीयत नगर के वृद्धाश्रम को कर दे।" तिवारी जी को सोनी जी का सुझाव उचित लगा और बोले - "हाँ यार! तू सही कह रहा है, मैं कल ही अपने बंगले एवं जमा पूंजी की वसीयत वृद्धाश्रम को कर देता हुँ ताकि मेरे मरने के बाद मेरी संपत्ति का उपयोग पुण्य कार्य में हो सके।"
अगले दिन तिवारी जी ने पंजीयन कार्यालय में जाकर अपनी चल-अचल संपत्ति एवं बंगले की वसीतय वृद्धाश्रम को कर दी, तिवारी ऐसा करके अत्यधिक प्रसन्न थे और घर पहुँच कर अपने बेटे बहुओं को इस पुण्य की जानकारी दे दी, उन्हें विश्वास था की उनके इस निर्णय से घर के सभी सदस्य अत्यधिक प्रसन्न होंगे।
शाम हो चुकी थी, तिवारी इंतजार कर रहे थे की उन्हें खाना खाने का बुलावा आता होगा और शायद आज कुछ विशेष पकवान भी बने होंगे। लेकिन काफी देर तक इंतजार करने के बाद भी ना कोई बुलावा आया और ना ही घर पर कोई आया। "शायद भूल गये होंगे" - मन में यह विचार करते हुए तिवारी जी अपने बडे़ भतीजे के घर पर पहुँचे, जो की दो फलांग की दूरी पर ही स्थित था ओर बोले - "बेटा! आज क्या बनाया है, बहुत जोर से भूख लग रही है।" बहु बोली - "चाचाजी! आज तो कुछ भी खाना नहीं बचा, आप छोटे भईया के यहाँ जाकर खा लीजिए।" ठीक है, बेटा कह कर तिवारी जी छोटे भतीजे के यहाँ पहुँचे तो वहाँ से भी यही जबाब मिला की आप बडे़ भईया के यहाँ जाकर खा लीजिए। निराश होकर तिवारी जी अपने घर वापस आ गए और घर में रखे कुछ बिस्किट खाकर सो गए। सोचा सुबह ही जाकर खा लूँगा, लेकिन सुबह भी किसी के यहाँ से कोई बुलावा नहीं आया और ना ही घर पर कोई आया। दो दिन हो गए थे, तिवारी जी ने खाना नहीं खाया था, अपने बेटे-बहुओं, नाती-पोतो के व्यवहार में वसीयत करने के बाद आचानक आए परिवर्तन से तिवारी जी अत्यंत व्यथित थे।
फिर तिवारी जी का स्वास्थ्य अत्यंत खराब था, उनसे बिस्तर से उठते भी नहीं बन रहा था। बेटे-बहुओं को फोन लगाया, पर किसी ने नहीं उठाया और ना ही पिछले तीन दिनों से उन्हें कोई देखने आया था। अब एक मात्र सहारा सोनी जी ही थे, यह सोचकर सोनी जी को फोन लगाया और उन्हें सारा हाल बताया, तिवारी जी की व्यथा सुनकर सोनी जी अत्यधिक दुखी हुए। तिवारी जी बोले - "यार! मेरी तो अब कोई हाल पूछने वाला भी नहीं बचा, किसी दिन मैं घर में यदि मर भी जाऊँगा तो किसी को पता भी नहीं चलेगा। इसलिए तू मुझे वृद्धाश्रम ही पहुँचा दे ताकि वहाँ पर मेरी कुछ तो देखभाल हो जाएगी।
तिवारी जी अब वृद्धाश्रम पहुँच चुके थे, कुर्सी पर अकले बेठे बैठे कानो में पत्नि की कही बात गूंज रही थी "कोई नही है मेरे अलावा तुम्हारा, जिस दिन मैं और यह धन दौलत नहीं रहेगी सब पराए हो जाएँगे।"
- दीपक शर्मा
पता :- परसाई कालोनी, टिमरनी, जिला - हरदा, मध्य प्रदेश
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