चाक पर मिट्टी - by Nandita Majee Sharma


चाक पर मिट्टी

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मैंने चाक पर पड़ी मिट्टी से पूछा,

क्यों भाग्य में तेरे पीड़ा इतनी?

घिस-पिस कर, मसलते तुझको,

है तुझमें यह सहनशक्ति कितनी?


चाक की कुम्हलाई मिट्टी बोली,

यह घिसना-पीसना ही कर्म है मेरा।

इसी से मेरा अस्तित्व मेरा आधार,

जो ना घिसी तो हूँ, केवल ढेला बेकार।


कुम्हार मुझे रौंद नया रुप है देते,

करते भिन्न-भिन्न रंगों से श्रृंगार।

मिट्टी के ढेर से मुझे बनाते मूरत,

करते पूजन, अलंकरण और व्यापार।


मैं चाक की मिट्टी, पंचतत्व का भाग हूँ,

मैं ही मुक्ति मार्ग, मोक्ष का प्रयाग हूँ।

धरती का ममत्व मुझमें भी तो समाया है,

धरती के धीरता ने सहनशील मुझे बनाया है।


- नंदिता माजी शर्मा

मुम्बई, महाराष्ट्र

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