राही और मंजिल - by Anamika Vaish Aina
मैं राही हूँ मंज़िल प्रेमी, मंज़िल ही मेरा ठिकाना है
बिन रुके-थके ही आगे ही आगे बढ़ते जाना है..
कितने ही पत्थर पाँव लगे
कितने ही शूल चुभें पथ में
स्वयं को बंधक कर लो जी
कर्तव्यों श्रम जुनूँ के रथ में
दृढ़ संकल्पित जन हेतु होता न कोई बहाना है..
जप तप वर्षा धूप-छाया
राही जाने राह की माया
कंटक बाधा रुते रंजिशें
भेद साज़िशें बढ़ पाया
नहीं भटक अब साथी ठोकर में सारा ज़माना है..
मंज़िल पर ध्यान अड़ाये रखो
स्वहौंसले परवान चढ़ाये रखो
हिम्मत के बैल बनो तुम साथी
श्रमकोल्हू निरंतर चलाये रखो
प्रेरणार्थी मैं, मुझे जन हेतु प्रेरणा हो जाना है..
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