शहर से अच्छा अपना गाँव - by Anamika Vaish Aina



गाँव का नाम सुनते ही मन में कच्चे घर.. कच्ची सड़कें.. हरियाली.. बाग..पशु पक्षी आदि और अपनत्व के अपार भाव मन में घूमने लगते हैं। गांव ही वो जगह है जहाँ हर व्यक्ति अपने पिताजी या बुजुर्गों के नाम से जाना जाता है..। मानवता के साथ साथ प्रेम की भावनाओं की भी नदिया मिलती हैं गाँवों में ... वो भी निर्मल निश्छल और शुद्धता और सादगी के साथ फिर चाहे वो भावनायें हो या फिर खान पान और रहन सहन।
गाँव की धूल के कण कण मे प्रेम झलकता है और रोम रोम में सहयोग और मिठास। शांत परिवेश... खुशनुमा मिलनसार माहौल... फुर्सत के पल 



जबकि शहर का वातावरण जगमग तो है लेकिन गाँवों सा अपनापन और प्रेम नहीं... यहां लोगों की पहचान उनके घर के नंबरों से होती है। वाहनों और कारखानों का धुंआ... वृक्षो की कमी... पशु पक्षियों से रहित वातावरण... ईर्ष्या द्वेष और साजिशों से भरा माहौल.. कुकर्मों से युक्त परिवेश...दिल दहलाने वाला शोर... और अकेलापन महसूस होती जिंदगी... चिंता और व्यस्तता में डूबे लोग..

शहर वालों को पता ही नहीं कि उन्होंने क्या क्या और कितना अनमोल उपहार खोया है गाँवों के रूप में..
शहर की चकाचौंध मे इंसान कितना खोखला होता जा रहा है ये शायद उसे तब समझ आये जब वह पुनः गाँव जाकर कुछ समय व्यतीत करे.. वहाँ के रंग ढंग मे घुलमिल जाए और खुद को मातृभूमि की मिट्टी से संवारे.. 


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