कलम के बोल - by Shubhasish Pattanayak








मन का परिंदा 
कुछ उड़ने लगा है।
बंद था दरवाजा,
अब खुलने लगा है।

गुमनामी का चादर
फेंक आया कहीं,
कलम अपना बोल
अब बोलने लगा है।

कैद तो नहीं था,
कहीं भी कभी भी।
बोल भी देता था,
बच्चे की बोली सी।

मैंने ही ना सुना,
सृजन के बोलों को।
सृष्टि थी दृष्टि की,
दबी सी गढ़ी सी।



फिर एक दिन संग अपने
सावन लिए आया।
शब्दों के मोती जो,
पत्तों पर लहराया।

मैंने उन पत्तों की
किलकारी है सुनी।
पत्ते बोले झूमे,
में भी सुन मुसकाया।

मृत से कुछ थे मुझमें,
जीवन कुछ ले आए,
बिन बरसे लब तरसे,
में भी अब जीता हूं।

रातों की शाही से, 
तारों को लाता हूं।
गीत लिखता जाता हूं।
गीत गाता जाता हूं।


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