रक्षाबंधन: रिश्ते है यह अजीब से - by Rohan Kumar Srivastava
रिश्ते है यह अजीब से
यह भगवान भी कैसा कैसा रिश्ता बनाता है
दूर होकर भी क्या किसी रिश्ते को निभाया जाता है
सारी उम्र में उसके साथ रहना चाहता हूं
उसके किए उपकारों को मैं उसे लौटाना चाहता
मुझसे बड़ी थी ना मुझ से जल्द ही अलग चली गई
इस बार मुझे बस वह अकेला कर चली गई
भगवान ने तो मुझसे मेरी खुशियां ही छीन लिया
अलग उससे मुझे कर ना जाने वह कौन सा जंग जीत लिया
गुण वह सारे मर्दों सा अपनाई थी
बहन है वह मेरी मुझे इंसान बनना सिखाई थी
आज भी मन भर आता है रक्षाबंधन में जब मैं उससे मिलने जाता हूं
पता नहीं कौन सी शक्तियां हैं जिनके पास जाकर मैं लौटना नहीं चाहता हूं
सजने सवरने का औरों की तरह उसे भी शौक था
उसके सारे सामान के साथ खेलने का मुझे भी शौक था
बहन मुझे बचपन में लाली ,पॉलिश लगाकर लड़की बना दिया करती थी
भगवान मुझे दो लड़कियां दी है मां मुझे देख दोहराया करती थी
ऐसे हालात में देख कर मुझे वह दोनों बहुत मुस्कुराया करती थी
घर भर में मैं सबसे ज्यादा उससे जुड़ा रहता था
अपनी सारी बातें मैं सिर्फ उसे बताया करता था
मेरे कारनामों से औरों की तरह वह कभी उबा नहीं करती थी
मुझे हर बार डराने को बस आंख दिखाया करती थी
उसकी विदाई के समय मैं भी रोना चाहता था
लेकिन उसे रुला कर मैं कभी उसे विदा नहीं करना चाहता था
उसके विदा होने के बाद सबसे ज्यादा मैं रोया था
न जाने कितनी रातों में उसके याद में खोया था
भाई - बहन का रिश्ता ऐसा क्यों बन जाता है
ता उम्र उन से अलग होकर क्यों जिया जाता है
क्या कोई ऐसा रास्ता नहीं , यह भी हमेशा अपने घर में रहे
लड़कों की तरह शादी के बाद यह भी अपने घर में जिए
रक्षाबंधन आ गया है ना मैं अब उससे फिर से मिलना चाहता हूं
अगर मांग ले वह तो मैं उसे अपनी सारी खुशियां देना चाहता हूं
मरने से पहले कुछ ऐसा करना चाहता हूं
उसके एक धागे का कर्ज ता उम्र मैं निभाना चाहता हूं
wow😊
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