कर लो दुनिया मुट्ठी में - by Dr. Sandhya Javali
मुझे पता नहीं , सफलता किसे कहते हैं। सफलता के मायने हर एक के लिए अलग-अलग हो सकते हैं। किसी को ढेर सारा पैसा, ऐश्वर्य ,तो किसी को बड़ा-सा घर,बंगला,गाड़ी,तो किसी को बेटे-बेटियों की उच्च शिक्षा, शादी-ब्याह सफलता लगती होगी। लेकिन यह कहानी है एक लड़की की--…..
महाराष्ट्र में पली-बढ़ी,बीजनेस फॅमिली से आई, पांच बहन-भाइयों में पली,एक सीधी-सादी बीस साल की लड़की। शादी कर बड़े शहर आई। पहले ही दिन से डरी-सहमी सी। यहां तो सब अंग्रेज़ी में या कन्नड़ में बात करने वाले। अंग्रेजी में बात नहीं करतीं तो वह बस 'अनपढ'गंवार'जैसी। घर आने वाले लो,कोई उसकी दखल ही न लेता,कोई सब कुछ अनुवाद करता,, जैसे अंग्रेजी न बोलने का मतलब,समझती भी नही। कोई उसका अपमान, अवहेलना करता। यह कहकर कि'महाराष्ट्र का बी.ए. कर्नाटक के एस.एस.एल.सी के बराबर है।.’ पति से मन-मुटाव भी इसी बात को लेकर। वह उसे बाहर ले जाने अपने दोस्तों से मिलवाने में शर्मिंदगी महसूस कर रहे थे। बी.ए. कैसे किया फिर?? हिंदी में क्यों बात करती हो???
यह कम था कि देवरानी आई,,तो वह डॉक्टर,…. छोटे ने तो यह शर्त बताई कि मुझे लड़की ऐसी चाहिए जो अंग्रेजी में बातचीत करें। यह उस लड़की के मुंह पर मारा बहुत बड़ा तमाचा था।
तब उसका आत्मविश्वास जगा,यह ऐसा तो नहीं चलेगा। यह एक कटु सत्य है, सदियों से मनुष्य मात्र अपने बुरे अनुभवों से ही सीख लेता आया है।
संस्कार अच्छे थे,सुबह से सासु मां के साथ किचन में लगी रहती, कोई घर आता तो वह किचन में,सर्व कर, वाह-वाही , लेनेवाला कोई और। फ्री होते ही,जैसे भी अपने कमरे में घूसती, अंग्रेजी किताबें,मॅगझिन्स पढ़ना, जोर से पढ़ना, अंग्रेजी न्यूज सुनना, पढ़ते वक्त कोई कठीन शब्द आए तो उसे अलग से लिखते जाना,ताकि बाद में एक साथ सारे शब्दों के अर्थ शब्दकोश में देखना शुरू किया। दूसरी एक बात यह की, कि महाराष्ट्र विश्वविद्यालय में एम.ए.का एक्सट्ररनल करके प्रवेश लिया। वह पूरा करने के बीच बच्ची ने जन्म लिया,वह भी सातवें महीने में, जिसे सौ प्रतिशत ध्यान देना जरूरी था। प्रिम्याचुअर बेबी, जिसे इनक्यूबेटर में रखा था, डेढ़ किलो वजन की,जो एक साल में ग्यारह पौंड की हुई। लेकिन पढ़ने का जुनून कायम था। झूठे सिद्धांत और नकारात्मक सोच के साथ जीना नागवार था, फिर सफलता प्राप्त करने मूल्य तो चुकाना ही था। बड़े ज़िद से ,उसे पढ़ा ने कन्नड़ की चार परीक्षाएं दी। बच्ची की बीमारी बार-बार हर्बल करनेवाली,कभी पीलिया,कभी बड़े हुए नाक की हड्डी का आॉप्रेशन। लेकिन उस लड़की को अपने अंदर छिपे ताकीद को खोजना था, उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य भी वही था,सपना जो संजोया था,अब कैसे पीछे हटना??? भरा -पूरा संयुक्त परिवार, जिम्मेवारियां। सपने पूरे करने में देर होती रही लेकिन इरादें पक्के थे। अंग्रेजी सुधारनें बात-चीत करना जरुरी था, तो दोपहर में चलने वाले अनुवाद,कॉन्सेलिंग ऐसे कई कोर्सेस किए। आत्मविश्वास बढ़ रहा था।धर बैठे -बैठे बी.एड.की परीक्षा दी,दो-दो साल मैके न जाकर। बहुत लोगों से से सुना था और सुन रही कि शादी के बाद पढ़ाई जारी रखना मुश्किल होता है। हर साल एक नया 'रेझोलेशन'। किसी दोस्त की सहायता से प्रख्यात कालेज में लेक्चरर शीप करते-करते विभागाध्यक्ष बनी। काम से बिलकुल न कतराते,रसोई,मेहमान नवाजी, सास-ससुर की बीमारी, लड़खड़ाते ही सही पर आगे बढ़ते….२०११ में पी.एच.डी.की उपाधी पाने में कामयाब हुई। साहित्य में थोड़ा हाथभार बढ़ाए। किताबें प्रकाशित की।
आज कोई कहता है 'मॅम ,आपके बारे में बहुत सुना है',तो वह लंबा सफर याद आता है।
यह कहानी है मेरी, यह कोई 'सक्सेस'स्टोरी नहीं,मेरा स्ट्रगल,मेरा संघर्ष है….जो अपमान के एक बीज से मेरे अंदर जगा।
सफल लोगों का मानना है कि विपत्तियों का अंतिम छोर 'कामयाबी’ है । नामुमकिन तो जिंदगी में कुछ भी नही है। क्या मैं इसे अपनी जिंदगी की सफलता कहूं?? मुझे नहीं पता। पर मेरे जैसे कई बहनों को यहीं कहना चाहूंगी कि, आगे बढो…अपनी मुठ्ठी में सितारे भर लो…कर लो दुनिया मुट्ठी में….।
Writer:- Dr. Sandhya Javali
No comments