प्रात की छटा - by S.P. Dixit
प्रात की छटा
शुचि प्रात की छटा अनुपम, दिवाकर- अंशु दैदीप्यमान।
गुंजित सर्वत्र विहंग कलरव, छाया विशुद्ध पवन वितान।।
विहँस उठे पुलकित उपवन,कलियों ने फिर खोले घूंघट।
फूल-फूल मधुप का गुंजन, समेट लिया रजनी ने लट।।
उत्कीर्ण स्फूर्ति प्रातः काल, जन-जन प्रफुल्ल भ्रमण।
गुंजित आँगन कोकिल स्वर,स्पंदित अवनि कण-कण।।
प्रभा ज्योत्स्ना सर्वत्र छाई,निशा तिमिर हुआ अवसान।
सुहावना अति प्रातःकाल, गूंजे मंदिर घंटियां, अजान।।
विकीर्ण भानु चंचल किरणें,वसुधा कर रहीं शोभित।
प्रात दृश्य रुचिर, मनोरम,निशा रूदित हुई तिरोहित।।
अति रोचक पूर्व लालिमा,तुहिन बिंदु ज्यों अंभसार।
ब्रह्ममुहूर्त का काल पावन,प्रातःकाल सौंदर्य अपार।।


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