पुलवामा की टीस - by Dhan Singh Mehta "Anjaan"
पुलवामा की टीस
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पुलवामा की घटना का दुख,
वीरों के माँओं से पूछो।
बीबी व बच्चों से पूछो,
वीरों के गांवों से पूछो।
उस माँ की आँखों में झांको,
जिस मॉं का महताब न लौटा।
उन बच्चों के चेहरे देखो,
जिन बच्चों का बाप ने लौटा।
सैनिक परिवारों से पूछो सच में,
विपदा क्या होती है।
उस युवती की व्यथा सुनो जो,
पुलवामा में पति खोती है।
वह ताबूतों की देख अधिकता,
डरी व बेहद घबराई।
सभी तिरंगे में लिपटे थे,
उसकी दो आँखें भर आईं।
जब देखा टुकडों में पति को,
हिले होंठ कुछ बोल न पाई।
पटक दिया माथा धरती पर,
पटकी चूड़ियाँ भरी कलाई।
चीत्तकार जब मासूमों की,
उसके कानों से टकराईं।
उसने भीगी,सहमी नजरें,
अपने चारों ओर घुमाई।
पुत्र शोक में झर-झर आँसू,
बहा रहा था बाप अभागा।
अच्छे दिन आने से पहले,
टूट गया जीवन का धागा।
जिगर का टुकड़ा,टुकड़े- टुकड़े,
देख अभागी माँ चकराई।
पीड़ा उमड़ पड़ी आँखों से,
भूल गया सागर गहराई।
पुलवामा की बर्बरता ने,
तन मन उसका हिला दिया है।
राजनीति की हनक -सनक ने,
जिन्दा उसको जला दिया है।
उसके सारे स्वप्न जलाये,
पति की पावन देह जलाई।
बत्ती मोम जलाकर जग ने,
एक बेहूदा रीति निभाई।
बेटी उसकी पूछ रही है,
मम्मी! पापा कब आयेंगे?
होली तो आने वाली है,
चोली,,चुनरी कब लायेंगे?
मोबाइल की चाह लिए मन,
बेटा ज़िद पर अड़ा हुआ है।
यही किया था पिता ने वादा,
प्रतीक्षा में खड़ा हुआ है।
बेसुध तन, विचलित मन उसका,
बच्चों को कैसे समझाए ?
नहीं रहे अब पिता तुम्हारे,
बच्चों को कैसे बतलाए।
यह राजनीति का विषय न होता,
वीरों के ताबूत न आते।
फल,मेवे कश्मीर से आते,
घायल सिंह सपूत न आते।
चिन्तित खड़ा चिनार न होता,
केसर की क्यारी न रोती।
गु॑जित स्वर वीणा के होते,
हर दिन बमबारी न होती ।
दुःखी न होते सैनिक परिजन,
सीमा पर लफड़े न होते।
सिंदूरी सपनों के बिखरे,
सड़कों पर टुकड़े न होते।
यह राजनीति का विषय न होता,
मचा यहाँ कोहराम न होता।
विधवाएँ चालीस न होती,
पुलवामा बदनाम न होता।
पुलवामा की बर्बरता पर,
कवि ने जब अपना मुँह खोला।
शीश झुका दोनोें कर जोड़े,
कलम उठा धीरे से बोला।
भारत की बलिदानी नारी!
खड़ी हो गई एक समस्या।
किस स्याही से लिखे आज कवि,
तेरी अद्भुत त्याग, तपस्या।
- धन सिंह मेहता "अनजान"
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
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