आजी - by Dr. Asha Sharan


आजी

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आज शादी के बीस साल बाद मायके जाना हुआ।सभी से मिलने की उत्कंठा तो हमेशा ही थी, पर अब वह साकार होने जा रहा था। एक-एक करके सभी से मिलना हुआ, परन्तु अभी भी कुछ अधूरापन सता रहा था। मेरी नजर अभी भी किसी को ढूँढ रही थी। अचानक एक आवाज ने मेरी खोज को विराम दे दिया। हाँ, इसी आवाज को ही मैं ढूँढ रही थी, ये आवाज आजी की थी। जो पूरे गाँव की आजी थी।


"आशु बिटिया कब आई तू" - आजी ने पूछा।

"सुबह सात बजे आई मैं आजी" और मेरे सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया। थोड़ा रुककर लकड़ी को टेकती हुई निकल गई।


उनके जाने के बाद कितनी स्मृतियाँ चलचित्र की तरह घूमने लगी। हम सारे मोहल्ले के बच्चे उनके खाने के समय उन्हें चारों तरफ से घेरकर बैठ जाते। हमें उस वक्त यह समझ नहीं थी कि हमें खिलाने के लिए उनके पास अनाज की व्यवस्था कैसे होगी, क्योंकि वे अकेले ही रहती थी। जब उनकी सिगडी जलने की खुशबू आती तो हम बच्चे खुद को रोक नहीं पाते। पर मेरे मन में हमेशा से ही एक विचार आता कि मैं उनके अतीत के बारे में जानूँ, पर बार-बार वे टाल जाती। लेकिन मेरे कई बार कहने पर आखिरकार उन्होंने बताना शुरु किया।


"हम पाँच भाई-बहन थे, मैं सबसे छोटी थी। सारा बचपन गाय और भैंस चराते हुए बीत गया। मेरे पिता एक मामूली किसान थे। समय अपनी रफ्तार से बढ रहा था और मेरे विवाह की चिंता सबको सताने लगी। कई लड़के देखे गए, मेरी बारात भी आ गई, पर मेरी बारात की कुछ अलग बात थी। वर घोड़े में तो बैठा था, लेकिन उसका मुँह घोड़े की पूँछ की तरफ था।"


तो मैंने कहा "आजी उसने विपरीत दिशा में मुँह क्यों किया था?" आजी ने एक लम्बी साँस भरी और फिर बताना शुरु  किया "वास्तविकता यह थी कि वर देखने में असमर्थ था अर्थात वह नेत्रहीन था और उम्र में भी मुझसे बहुत बड़ा था, लेकिन मेरी माँ ने अपनी स्पष्टता व्यक्त करते हुए कहा कि मैं और मेरी बेटी कुंए में कूदकर अपनी जान दे देंगे पर इस अधेड़ और नेत्रहीन से विवाह हरगिज़ नहीं होने दूँगी।"


मैंने पूछा "इसके बाद सभी की क्या प्रतिक्रिया हुई?" आजी ने पहले तो मुझे गौर से देखा फिर धाराप्रवाह में कहने लगी - "सभी का तो मुझे नहीं पता लेकिन मेरे पिता ने एक फरमान सुना दिया कि यह लड़की अब घर में नहीं रहेगी। मेरी माँ ने मेरे कारण घर और बाहर सभी का सहा, पर मैं यह सब नहीं देख सकी और एक दिन रात के अंधेरे में घर छोड़ दिया।"


"किसी ने आपको रोका नहीं और रात में डर नहीं लगा।" - मैंने पूछा। आजी किसी शून्य की ओर निहारिती हुई कहने लगी - "गुस्सा और दु:ख के कारण तो घर से निकल गई, पर जाना कहाँ है मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था। तभी घोड़ो की टाप सुनाई दी और मैं डर गयी, क्योंकि तब हमारा देश आजाद नहीं हुआ था, अंग्रेज सिपाही और डाकुओं दोनों का ही आतंक था। तभी घुड़सवार मेरे पास तक पहुँच चुका था। मैं सहम गई परन्तु वह घुड़सवार ने अपने घर में मुझे पनाह दिया। मैं उनके सबसे छोटे पुत्र की पत्नी के रुप में रहने लगी।"


"अरे आजी! आखिरकार आपका घर बस गया और सारी परेशानियां दूर हो गई।" - मैंने चहककर कहा। आजी ने बडे ही दर्दभरे शब्दों में कहा - "अरे कहाँ बिटिया, कहूँ सागर से लहर अलग होई सकत भा का?" अइसे मोर संबंधवा भी मुसीबत से रहा। जीवन भर दु:ख भी लहरवा की तरह आवत रहा बिटिया।"


"बारह सालों के बाद मेरी कोख से मेरी लडकी ने जन्म लिया। मैं सबसे ज्यादा खुश थी कि मुझे समझने वाला मेरा कोई अपना आया। यूँ तो मैं सम्पन्न परिवार में आई थी लेकिन मेरे अतीत के कारण हमेशा किसी न किसी रुप में सास, जेठानी और रिश्तेदारों से मानसिक रुप से प्रताडित होती रही। मेरे पति चाहकर भी किसी का विरोध नहीं कर पाते थे, क्योंकि वे भी सभी पर आश्रित थे। मैं तो सब भूलकर अपनी बेटी में ही पूरी तरह रम गई, लेकिन मेरे पति की असमय मृत्यु ने मुझे एकदम से तोड़कर रख दिया। मेरी बेटी पास आती और मुझमें ही सिमट जाती। कई सालों तक मेरी स्थिति ऐसी ही रही।"


जैसे-जैसे कहानी बढ़ती जाती तो आजी के चेहरे में भी भाव आते-जाते रहते। आजी थोड़ी देर खो गई थी अतीत में और कहने लगी - "मेरे दु:ख और निराशा की छाया जब मेरी बेटी पर पड़ने लगी तो मैंने अपने आप को संभाला। कुछ दिन मेरी जेठानी ने मुझे रखा, लेकिन एक दिन उन्होंने घर से निकाल दिया, मैंने भी ज्यादा विरोध नहीं किया। हम माँ और बेटी ने टिफिन सेंटर शुरु कर दिया और इस तरह जीवन गुजरता रहा। बेटी को पढाया, अच्छे घर में शादी कर दी।"

"फिर तो आप अकेली हो गई होंगी आजी" - मैंने कहा।

"अरे अकेली कहाँ बिटिया, बेशक मेरे परिवार ने मुझे ठुकरा दिया लेकिन सारा गाँव मेरा परिवार है। सब मेरी परवाह करते हैं।" - आजी ने बडे उत्साह के साथ कहा।


इतना सब सहने के बाद वही चिर-परिचित मुस्कान के साथ आजी मेरे सामने खड़ी थी, लेकिन स्वाभिमानी आजी अस्सी की उम्र के बाद भी एक सरदार जी के घर की चौकीदारी करती हैं, उसी से अपना गुजारा करती हैं।


अचानक मेरी माँ ने मुझे आवाज लगाई और मैं चली गई, पर काफी दिनों तक आजी की दास्तान मेरे अंदर गूँजती रही।


- डॉ० आशा शरण

खंडवा, मध्य प्रदेश

शिक्षा- एम०ए०, पीएच०डी०, नेट, बी०एड०, पी०जी०डी०सी०ए०

रुचि - लेखन, संगीत सुनना, सामाजिक कार्य में संलग्न रहना

विभिन्न रचनाएँ प्रकाशित

17 वर्षों से हिन्दी व्याख्याता के रूप में कार्यरत

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