मित्र का हित - by Amar Nath Sharma


मित्र का हित

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चंद्र और प्रकाश के बीच मित्रता गहरी हो चली थी। प्रकाश का ननिहाल चंद्र के पड़ोस में ही था। अपने घर के सामने के प्राथमिक विद्यालय से पढ़ाई पूरी करने के पश्चात छठी कक्षा से पढ़ाई करने के लिए प्रकाश ननिहाल आ गया था। जिस मध्य विद्यालय में चंद्र पढ़ता था, उसी में प्रकाश ने भी अपना नामांकन करवाया। चंद्र उस समय सातवीं कक्षा का छात्र था।


दोनों साथ-साथ विद्यालय जाते, टिफिन के समय साथ-साथ नाश्ता करते, साथ-साथ विद्यालय से लौटते, लौटने के बाद साथ-साथ खेलते। दोनों प्रतिभा के धनी थे। घर पर एक ही शिक्षक के पास दोनों पढ़ते भी थे। चंद्र हमेशा कक्षा में प्रथम आता था। पढ़ाई में वह प्रकाश की भी मदद करता रहता था। छठी कक्षा की वार्षिक परीक्षा में प्रकाश भी अपनी कक्षा में प्रथम आया। मध्य विद्यालय से निकलने के बाद भी दोनों पास के ही कस्बे के एक ही उच्च माध्यमिक विद्यालय में पढ़ाई करते रहे।


चंद्र प्रकाश से एक वर्ष पूर्व ही उच्चतर माध्यमिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया और मेडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए कोचिंग लेने पटना चला गया। अगले वर्ष प्रकाश भी प्रथम श्रेणी में उच्चतर माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण हो गया। वह भी मेडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने के लिए पटना जाना चाहता था लेकिन प्रकाश के पिता उसे पटना नहीं भेजना चाहते थे क्योंकि उन्होंने देखा था कि उनके पुत्र के जैसे कई तेज छात्र मेडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने के लिए गए और कई वर्षों के बाद बिना सफल हुए ही वापस घर आ गए। वे चाहते थे कि प्रकाश घर पर ही रह कर आगे की पढ़ाई करे। 


प्रकाश ने चंद्र को जब यह बातें फोन पर बताई तो उसने फोन पर ही प्रकाश के पिता से कहा - "आप विश्वास करें हम लोग साथ रहकर ही मेहनत करेंगे और हम दोनों अवश्य सफल होंगे आप उसे मेरे पास ही रहने भेज दें। आप एक ग्रामीण चिकित्सक है। आप देखिएगा एक दिन आप का पुत्र अवश्य एक एमबीबीएस बनेगा।"


प्रकाश के पिता ने सुन रखा था कि चंद्र कोचिंग की टेस्ट परीक्षाओं में बहुत उच्च रैंक लाया करता है। अत: उसकी बातों से आश्वस्त हुआ और उसे चंद्र के पास ही भेज दिया। चंद्र ने अपनी ही कोचिंग संस्थान में प्रकाश का भी नामांकन करवा दिया। परीक्षा के लिए दोनों कठिन परिश्रम में जुटे थे। प्रकाश को चंद्र का मार्गदर्शन भी मिलता रहता था।


प्रकाश को पटना आए हुए एक वर्ष बीता था। तब तक चंद्र अपना कोचिंग समाप्त कर प्रवेश परीक्षा में सम्मिलित हो चुका था, परीक्षा देने के पश्चात भी वह पटना में ही था और प्रकाश की तैयारी की देखरेख कर रहा था।


परीक्षा का परिणाम आया। चंद्र उच्च स्थान पाकर सफल हुआ। उसका नामांकन पीएमसीएच में हो गया। चंद्र के नामांकन के थोड़े ही दिन बाद एक सड़क दुर्घटना में प्रकाश के पिता की मृत्यु हो गई। प्रकाश पर मानो दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। अपने मित्र के इस दुख ने चंद्र को भी मर्माहत कर दिया।


प्रकाश के साथ चंद्र भी उसके घर गया। श्राद्ध कर्म चल रहा था। चंद्र प्रकाश के बारे में ही सोच रहा था, जो थोड़ा बहुत जमीन जगह है उससे तो प्रकाश की माँ और दो बहनों का खर्च चलना भी मुश्किल है। कोई सगा संबंधी भी कुछ आश्वासन देता नजर नहीं आ रहा था। फिर मित्र को अंधकार में छोड़ अपनी पढ़ाई करना उसे पाप पूर्ण लग रहा था। दादा जी से सुनी रामचरितमानस की चौपाई उसे याद आ रही थी-

"जे न मित्र दु:ख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥

निज दु:ख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दु:ख रज मेरु समाना॥"


उसने मन ही मन निर्णय लिया - "नहीं! मैं इसे अंधकार में डूबने नहीं दूँगा, इसे फिर अपने साथ लेकर पटना जाऊँगा, वहाँ ढ़ेर सारे कोचिंग संस्थान है, कई सफल छात्र अपनी पढ़ाई करते हुए भी कोचिंग में पढ़ा कर पैसे कमा रहे हैं। मैं भी कमा कर इसके खर्च की व्यवस्था करूँगा और इसका भी मेडिकल कॉलेज में नामांकन करा कर ही दम लूँगा।"


श्राद्ध कर्म समाप्त होने के पश्चात प्रकाश ने चंद्र से कहा - "चंद्र! तुम पटना लौट जाओ, तुम्हारी पढ़ाई छूट रही है। मेरा अब डॉक्टर बनने का सपना पूरा नहीं हो सकेगा। यही घर पर रहकर जो संभव हो सकेगा करूँगा।" यह कहते हुए प्रकाश की आँसू थम नहीं रहे थे। चंद्र ने कहा रोते रहने से तो तुम्हारे पापा लौट कर नहीं आ सकेंगे। चाहे मैं भी तुम्हारे साथ ही रह कर रोता रहूँ तो भी वे लौट कर नहीं आएँगे। मैंने उनको वचन दिया था कि आपका बेटा अवश्य डॉक्टर बनेगा। मेरी सफलता का समाचार सुनकर वे कितने खुश हुए थे। लोगों से कहने लगे थे मेरे बेटे का दोस्त डॉक्टर बन गया है । मेरा बेटा भी डॉक्टर बनेगा। उनकी बात को सच साबित करना है। मैं तुम्हें साथ लेकर ही जाऊँगा। 


प्रकाश की माँ ने कहा - "चंद्र बेटा! मैं अपना और बेटियों के निर्वाह का खर्च तो किसी प्रकार चला लूँगी, पर इसके पटना में रहने और कोचिंग का खर्च अब कैसे उठा पाऊँगी?" चंद्र, प्रकाश की माँ के कुछ और कहने से पहले ही बोल पड़ा - इसके खर्च की चिंता करने की जरूरत नहीं है आपको, मैंने उपाय ढूँढ लिया है। कोचिंग क्लास में पढ़ाने की बात मैंने कर ली है। हम दोनों के खर्च के लिए पर्याप्त पैसा हो जाएगा। माँ ने प्रकाश से कहा - "तब चले जाओ बेटा यदा-कदा मैं भी कुछ इंतजाम कर दिया करूँगी।"


दोनों पटना लौट गए। चंद्र को मेडिकल कॉलेज में हॉस्टल मिल गया था। पर वह हॉस्टल नहीं गया प्रकाश के साथ ही रहकर तैयारी की देखरेख करता रहा। और कोचिंग क्लास में पढ़ा कर खर्च जुटाता रहा। 


समय आने पर प्रकाश प्रवेश परीक्षा में सम्मिलित हुआ। परिणाम में सफल घोषित हुआ। जब लोग उसे सफलता की बधाई देते तो वह कहता- बधाई का पात्र तो मेरा मित्र चंद्र है। चंद्र के दादा ने जब प्रकाश को बधाई दी तो उनसे भी उसने यही कहा। फोन पर चंद्र से दादा जी ने कहा - "बेटे तुमने मेरे पास बैठकर रामचरितमानस से 'बल अनुमान सदा हित करई' वाला मित्र का जो लक्षण सुना था, उसे सच कर दिखाया है।"


- अमर नाथ शर्मा

धीमा बनमनखी, पूर्णिया (बिहार)

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