आत्मसम्मान - by Ruhi Singh
आत्मसम्मान
सुबह-सुबह घर के रोज़ाना काम निपटाने के बाद सृष्टि अपनी चाय बना कर, आदतन ड्राइंग-रूम में फ़ोन के पास बैठ गई। रोज़ नियमित समय पर बजती फ़ोन की घंटी की प्रतीक्षा करते हुए सोच में कहीं खो गई। वो चाहती थी, उसके हालात उसकी आवाज़ में ना झलक आए। वो सोचती रही, "मेरी आवाज़ तो ठीक है ना..? कहीं उसे पता तो नहीं चल जाएगा ना, वो समझ तो नहीं जाएगी ना..?"
उसके विचारों का ये क्रम फ़ोन की घंटी बजते ही टूट गया, और आनी आवाज़ साफ़ रखने के लिए सृष्टि ने एक घूँट पानी पी कर फ़ोन उठाया।
"बेटा कैसी है तू?" सामने से सुकूनदायक आवाज़ आई।
"मैं ठीक हूँ, अभी सुबह के काम पूरे हुए" सृष्टि ने झूठी मुस्कान के साथ कहा।
रोज़ के जैसे क्रमवार प्रश्न आते रहे।
"बच्चों को स्कूल भेज दिया? राजेश जी गए दफ़्तर?"
"हाँ माँ! बच्चे और राजेश गए। आप और बाबूजी कैसे है?"
"बेटा, हम लोग अच्छे है, तुम्हारे बाबूजी चाय पी रहे है" माँ ने सहजता से कहा,
अचानक से सृष्टि को कुछ याद आया,
"रूचा कैसी है? कुछ काम था, उसको बोला था फ़ोन करने को, क्यों किया नहीं? माँ, उसको कहना की मुझसे बात कर ले।"
सृष्टि अपनी आवाज़ में सहजता लाने का निरंतर प्रयास कर रही थी, झूठा मुस्कुरा भी रही थी। लेकिन माँ तो माँ होती है, छुपी हुई बातें माँ तो समझ जाती है।
"बेटा तू ठीक तो है ना..? तेरी आवाज़ भरी-भरी क्यों है..?"
गहरी साँस लेते हुए सृष्टि ने फिर बात छुपा ली, "नहीं माँ, सब ठीक तो है। वो तो सुबह सुबह के काम से थकान हो जाती है तो शायद....."
सृष्टि ये कह रही थी तभी दरवाज़े पे किसी ने खटखटाया।
"माँ कोई आया है, मैं बाद में बात करती हूँ।" कहते हुए सृष्टि ने फ़ोन रख दिया।
दरवाज़ा खोलने जाती हुई, वो सोच रही थी, "मैं ठीक तो लग रही हूँ ना..?"; दरवाज़ा खोलते ही सामने शीतल खड़ी थी। शीतल, सृष्टि की पड़ोसी और इस अनजान शहर में एक मात्र क़रीबी दोस्त थी। शीतल ने सृष्टि को देखते ही कहा - "सृष्टि... ये तेरा चेहरा..... सृष्टि... तू ठीक तो है ना..? तू भी ना.. उफ़्फ़, कब तक सहती रहेगी..? यहाँ से निकल क्यो नहीं जाती..?"
सृष्टि ने शीतल के सामने देख कर मुस्कुरा दिया और उसका हाथ पकड़ कर अंदर ले आ कर, उसे चाय देते हुए, पूछती है - "कल रात आवाज़ ज़्यादा आ रही थी क्या? तू इतनी सुबह-सुबह यहाँ कैसे?"
शीतल ने चिंतित आवाज़ से कहा - "क्या फरक पड़ता है, आवाज़ ज़्यादा थी या कम? तेरे चेहरे के निशान सब कुछ कहते है। इनके सामने सारे शोर कम लगते है।"
शीतल अच्छी दोस्त होने के नाते उसे हर बार की तरह समझाती है।
"सृष्टि, तू आपने मायके क्यों नहीं चली जाती? या कोई काम, नौकरी कर के आत्मनिर्भर क्यों नहीं हो जाती? कब तक तू ऐसे राजेश के ग़ुस्से का शिकार होती रहेगी..?"
सृष्टि अक्सर इस बात का जवाब सिर्फ़ वह उदास मुस्कान से देती थी। लेकिन आज सृष्टि अपनी सहेली को अपने मन में चल रही उलझन बताती है - "तू जानती तो है शीतल! अभी तो ऋचा की भी शादी करनी है, और ऐसे में उसकी और बड़ी बहन का मायके लौट आने से लोग क्या कहेंगे? फिर कैसे होगी उसकी शादी? और मेरे दोनों बच्चों का भविष्य का क्या होगा? उनकी पढ़ाई का कैसे करूँगी?"
शीतल बात तो शांति से सुनकर, हाथ में जो चाय कि प्याली थी, वो मेज़ पे रख कर, ठहरी-सी आवाज़ में सृष्टि को तर्क देने लगी - "हाँ, सृष्टि! इसी कारण तो मैं बोल रही हूँ। तू ही बता अवि और दिशा को कैसी शिक्षा दे रही है? अवि क्या सिखेगा, बड़े हो कर अपनी पत्नी के साथ, या किसी भी महिला के साथ कैसे व्यवहार करना सिखेगा? और दिशा, जो क्या सीखेगी, सारे अत्याचार बस इस लिए सहे ताकि वो एक लड़की है? तू तो पढ़ी लिखी है, कोई जॉब क्यों नहीं कर लेती?"
सृष्टि के कुछ बोलने से पहले ही, शीतल फिर बोलने लगी - "तूने B.Ed. की पढ़ाई की है, आसानी से शिक्षिका की जॉब मिल जाएगी। अभिषेक का एक दोस्त भी है, जिसकी स्कूल है। मैं अभिषेक से बात करती हूँ।"
सृष्टि बच्चों का भविष्य के विचार मात्र से सहम गई थी, और सहमी आवाज़ में कहने लगी - "तू सही कह रही है, बच्चे माँ से सबसे पहले सिखते है। और मैं अपने बच्चों को जीवन की शिक्षा गलत दे रही हूँ। तू बात कर अभिषेक जी से, अब मुझे अपनी ज़िंदगी को नए सिरे से शुरुआत करनी ही होगी!"
अगली सुबह, नियमित समय पर आने वाले माँ के फ़ोन से पहले ही फ़ोन की घंटी बजी। "कौन होगा?" सोचते हुए, सृष्टि ने रोज़ाना काम छोड़ कर झट-से फ़ोन उठाया।
फ़ोन पर शीतल थी, "अभिषेक ने बात कर ली है, और तू आज दोपहर में जा कर स्कूल से प्राध्यापक से मिल ले। मैं भी चलूँगी साथ तुम्हारे।" सृष्टि के कुछ हकहने से पहले, शीतल ने जल्दी में ये लहते फ़ोन रख दिया - "चल में थोड़ी देर में आती हूँ, अभी काम निपटा लेती हूँ।"
सृष्टि ने कभी भी, घर की दहलीज़ के बाहर के काम नहीं किया था! ये उसकी पहली जॉब थी, उसकी ज़िंदगी की ये नई शुरुआत होने वाली थी! सृष्टि ने तुरंत अपने पिता को फ़ोन मिलाया, और थोड़ी अधीर, मगर प्रसन्न आवाज़ में, वो पिता से दिल की सारी बातें बताने लगी। राजेश के बारे में भी बताया, और फिर कैसे उसकी दोस्त ने जॉब की बात की है वो भी बताया। पिताजी ने बड़े गर्व से सृष्टि को कहा की, वो उसके नए सिरे से जीवन की शुरुआत करने के निर्णय से गर्व महसूस कर रहे है, और हमेशा सृष्टि के उनका साथ होगा। सृष्टि की बेचैनी शांत हुई, पिता से बात कर के और आत्मविश्वास भी बढ़ गया।
दोपहर में शीत के साथ स्कूल गई, वहाँ पे स्कूल में टीचर की जॉब भी पक्की हो गई। अब सृष्टि अपने बच्चों के लिए ख़ुद हिम्मत, आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता का उदाहरण बन कर जीवन की सही शिक्षा दे रही है, और स्कूल में भी बच्चों को किताबों के साथ साथ जीवन के लिए ज़रूरी शिक्षा देने का प्रयास करती है।
नई ज़िंदगी के शुरुआत के साथ, सृष्टि का जीवन भी सुख, शांति, और ख़ुशियाँ ले कर आया। अब सृष्टि, NGO के साथ जुड़ कर, बाक़ी महिलाओं को भी अत्याचार से बाहर निकलने को प्रेरित करती है, और उनको नए जीवन की शुरुआत करने में पूरी मदद भी करती है।
सृष्टि आज सभी महिलाओं के लिए, एक प्रेरणा है, एक उदाहरण है, हिम्मत का, स्वाभिमान का, आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता का...!
- रूही सिंह
नैरोबी, केन्या
अंतरराष्ट्रीय कवयित्री
शौक - संगीत, नृत्य और लेखन
लिखने की विद्या - कविता, गीत, मुक्तक और ग़ज़ल
कई NGO के साथ जुड़कर जरूरतमंदों के लिए कार्यरत
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