अस्तित्व - by Madhuri Verma


अस्तित्व

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मैं अपनी पत्नी विभा और दोनों बच्चों के साथ पिछले पन्द्रह सालों से बैंगलोर रहता हूँ। मेरे बड़े भैया और भाभी मुम्बई में मल्टिनेशनल कम्पनी में इंजीनियर थे। हमारे मम्मी पापा वाराणसी में रहते थे। पापा ने अपने सर्विस के दौरान वाराणसी में दो मंज़िला मकान बनवाया था। हमारी इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई वाराणसी से ही हुई तत्पश्चात इंजीनियरिंग की पढ़ाई भैया ने मुम्बई से किया और मैंने दिल्ली से। विवाह के बाद भैया भाभी मुम्बई में ही सेटल हुए और मैं बैंगलोर में। पापा के रिटायरमेंट के बाद पापा मम्मी वाराणसी में ही रहने लगे। हमने बहुत चाहा कि अब तो उन्हें मेरे और भैया के साथ ही रहना चाहिए परन्तु पापा स्थायी रूप से वाराणसी में ही रहना चाहते थे।


रिटायरमेंट के बाद शुरू के दो तीन सालों तक तो मम्मी- पापा कभी बैंगलोर तो कभी मुम्बई आते जाते रहे पर महीने दो महीने तक ही रह पाते थे फिर ऊबने लगते थे। उनका कहना था कि मैंने बड़ी मेहनत और उम्मीदों के साथ उस मकान को दो मंज़िला तुम दोनों बेटों के लिए बनवाया है। अब तुम दोनों ने अपने अपने फ़्लैट ले लिए तो क्या मैं भी उस मकान और शहर को छोड़कर यहीं आकर तुम्हारे फ़्लैट के एक कमरे में सिमट जाऊँ? यहाँ मेरी क्या पहचान है? मुझे कौन जानता है? वहाँ मेरे जानने वाले हैं, हमारी सर्किल है, उस मकान में तुम लोगों का बचपन बीता है, तुम्हारी पढ़ाई के दौरान तुम्हारे आने जाने का सिलसिला बना रहा, तुम दोनों की शादी भी वहीं से किया। कितनी सारी यादें वहाँ से जुड़ीं हैं, कैसे मैं वहाँ से सब छोड़ दूँ? पापा के सारे तर्कों के आगे हम दोनों भाई निरुत्तर हो जाते। माँ दोनों के मोह से जकड़ी कोई निर्णय नहीं ले पाती थीं, ले भी लेतीं तो पापा के निर्णय को ही सर्वोपरि रखना पड़ता।


पापा चाहते थे कि सारे त्यौहार वाराणसी में ही हम इकठ्ठे होकर मनाएँ, इसलिए भैया और मैं सपरिवार होली, दशहरा और दीपावली पर वहाँ पहुँच जाते थे और एक साथ मिलकर ख़ुशियाँ मनाते। तीन चार सालों तक यह सिलसिला बहुत ही उत्साह और नियम के साथ चलता रहा। धीरे-धीरे मेरी पत्नी विभा ने एतराज़ जताया, उसकी सर्किल सोसाइटी में बन गयी थी और उसे छोड़ वाराणसी जाना उसे नहीं जमता था। फिर हमारे दोनों बच्चे भी दलीलें देने लगे कि हम अपने दोस्तों के साथ मिलकर होली खेलेंगे, दीपावली के पटाखे छोड़ेंगे, दादी दद्दू को बोलो इधर ही रहें या त्यौहार पर वही आ जाया करें, उधर भैया के यहाँ भी यही समस्या आई। हमने पापा से बच्चों के स्कूल में कम छुट्टियाँ होने का बहाना बनाना शुरू किया तो ज़िन्दगी के अनुभव से परिपक्व पापा ने समझौता कर लिया कि तब तुम दोनों भाई सुविधानुसार अकेले भी आ जाया करो। दो-तीन साल ऐसे भी चला, धीरे-धीरे दूरी और मजबूरी के कारण हम तीन परिवारों में बंट कर तीन शहरों के होकर रह गए। सभी अपने में मस्त और व्यस्त हो गये। मम्मी-पापा ने भी हमारे आने की उम्मीद छोड़ दिया था, हमसे अपनी ज़रूरतें, अपनी इच्छाएँ और अपना सही हाल बताना भी छोड़ दिया। हम मोबाइल से बात-चीत और कभी-कभी वीडियो कॉल में ही सिमट गए। पता नहीं पापा मम्मी को इससे पूरी संतुष्टि मिलती भी थी या हमारी ख़ुशी में ही ख़ुश थे।


परिस्थितियाँ बदलीं, भैया सपरिवार अमेरिका चले गए। अभी उनके वहाँ गए दो साल भी नहीं हुआ था कि अचानक मम्मी का हार्ट अटैक से निधन हो गया। मैं विभा और बच्चों सहित वाराणसी पहुँचा, माँ के अचानक चले जाने और अन्तिम समय में उनकी कोई भी सेवा न कर पाने का मुझे बहुत दुख हुआ।अगर पापा को उस स्थान के मोह ने इतना जकड़ कर न रखा होता तो माँ हमारे बीच से विदा हुई होतीं। माँ के पार्थीव शरीर को कंधे पर उठाते समय मैं बहुत विचलित हो गया। अन्तिम समय में अपने दोनों सन्तानों में से किसी एक को भी सामने न पाकर कितनी तड़प के साथ उनके प्राण निकले होंगे। मैं तो उन्हें इस रूप में विदा दे रहा था पर भैया का दुर्भाग्य कि उन्हें माँ को कंधा देना भी नसीब नहीं हुआ। भैया दो दिन बाद वहाँ पहुँच पाए।


वहाँ से वापस आते समय मैं पापा को अपने साथ ले आया, भैया भी वापस चले गए। मकान का नीचे वाला भाग किराए पर पहले ही पापा ने दिया था दूसरे मंज़िल पर हम लोग रहा करते थे, अब वहाँ ताला लग गया। मुझे बार बार यही सोच कर बहुत दुख हो रहा था कि यदि पापा ने पहले से ही हमारे साथ रहने का निर्णय ले लिया होता तो शायद मम्मी को बच्चों से अलग और दूर रहने का दर्द नहीं रहता शायद उनके इस सदमें में आने और हार्ट अटैक का कारण यही तो नहीं था? मम्मी के जाने के बाद पापा एकदम टूट गए थे। सबके बीच रहकर भी अकेले थे, शांत और एकांत-सा जीवन हो गया था उनका। मुश्किल से एक साल बीतने को आया कि उनका भी देहान्त हो गया। मैं बहुत अकेला महसूस करने लगा। उधर भैया सपरिवार अमेरिका बस गए थे, और मैं माता पिता विहीन भी हो गया था।


समय का पहिया अपनी गति से आगे बढ़ने लगा। पत्नी के सुझाव और आग्रह पर मैं वाराणसी का मकान बेचने के लिए एक ग्राहक तय कर वहाँ अकेले ही पहुँचा। वहाँ घर का ताला खोलते ही उस घर में बिताए जीवन के एक-एक पल मेरे आँखों के सामने रील की तरह घूमने लगे। किचन में रोटियाँ सेंकती पसीने से तर माँ की छवि, सोफ़े पर अख़बार पढ़ते पापा, डाइनिंग टेबल पर साथ खाते हम लोग …..पूरा अतीत जीवन्त हो उठा।


पूजा की आलमारी में सजे सँवरे भगवान की मूर्तियों के सामने भगवान से हमारे बढ़ोतरी के लिए मन्नतें माँगती माँ का जीता जागता स्वरूप.... मेरे हाथ उनके स्पर्श को पाने के लिए आगे बढ़े ही थे कि उँगलियों में धूल की जमी मोटी परतें....चिपक गईं। मुझे उस धुल में तुरंत जली अगरबत्ती के राख की अनुभूति हुई, मैंने उसे माथे पर लगा लिया।


बरामदे में रैक पर रखीं मम्मी-पापा की चप्पलें, आलमारी में हैंगर पर लटके पापा के शर्ट और मम्मी की साड़ियाँ..... ऐसा लग रहा था जैसे सभी में उन दोनों का अस्तित्व अभी भी साँस ले रहा था।


मैंने पूरे घर की सफ़ाई की, ठीक वैसे ही जैसे दीपावली पर माँ के साथ किया करता था। वर्षों से बंद माँ की आलमारी खोलकर चादर ढूँढने लगा, अरे यह क्या? उसमें कई नई और वे विशेष सुंदर चादरें तह कर रखीं थीं जिन्हें माँ मेहमानों के आने पर या त्यौहारों पर बिछाया करती थीं और फिर उन्हें संजो कर रख देतीं थीं। मैंने तीनों कमरों की चादरों को बदला और अपने कमरे के बेड पर लेट गया। ऐसा लगा जैसे भैया अपने कमरे में पढ़ रहे हों, मम्मी पापा भी अपने कमरे में सो रहे हैं। सोचते सोचते जाने कब आँख लग गयी और पलकों पर अतीत मंडराने लगा…. अनुभूत सारा अतीत... वर्तमान में बदलने लगा... ….घर के हर कोने में माँ के कदमों की आहट…. हमारा स्वर्णिम बचपन….. एक सुखद अहसास रोम-रोम में समाने लगा।


सुबह आँख खुली तो सूरज की किरणों से कमरा भर गया। आज दस बजे तक मेरा ग्राहक आने वाला था। रात का सपना जैसे साकार हो उठा। किचन में माँ के होने का अहसास होने लगा। मैं घर के हर कोने से अपना बचपन समेटने की कोशिश कर रहा था जहाँ हम दोनों भाइयों ने एक साथ समय बिताया था। मुझे लगा यह केवल मकान नहीं है, यह तो हमारी यादों की थाती है, यही घर तो इस बात का एकमात्र साक्षी है कि हमारा एक परिवार था। इस घर में पापा की उम्मीदें विश्राम कर रही हैं, मम्मी की आशाएँ बिखरी पड़ी हैं। इस घर के दीवारों पर हमारी बचपन की खिलखिलाहट चिपकी है….. सब तरफ़ से एक मौन चीख सुनाई देने लगी —- मुझे मत बेचना… मुझे मत बेचना। मैं उद्विग्न हो उठा, मकान बेचने का निर्णय पापा क्यों नहीं ले पाए… मैं समझ गया।


किराएदार आंटी मेरे लिए चाय और कुछ खाने की चीजें ले आई। घर का ताला उनको देकर बोला कभी-कभी हमारे घर की सफ़ाई कराते रहिएगा और मैं अपने ग्राहक से कुछ और समय की मोहलत माँग कर अपने दिल में मम्मी-पापा के अक्षुण्ण अस्तित्व को सहेजते हुए वापस बैंगलोर के लिए निकल पड़ा।


- माधुरी वर्मा 

(सेवा निवृत्त) प्रकाशन एवं प्रशिक्षण अधिकारी 

राज्य हिन्दी संस्थान वाराणसी

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