कटोरादाव - by Acharya Dhananjay Pathak
कटोरादाव
व्यायामशाला का द्वार खुला। लड़के इस कदर शीघ्रता से प्रवेश करने लगे मानो विलंब से आए हों। व्यायामशाला के अंदर प्रवेश करते ही लड़के अभ्यास में जुट गए, कोई उठक बैठक करता तो कोई दंड बैठक, कोई किसी को दोनों हाथों पर चित्त ऊपर उठा लेता तो कोई अपने दोनों पंजों पर किसी को खड़ा कर संतुलन के साथ ऊपर उठाता, कोई किसी को पैर फंसा कर पटक देता तो कोई अपनी दोनों भुजाओं में किसी को जकड़ कर जोर से कसता, कोई अपने को घुसों से पिटवा तो कोई दौड़ने में मस्त होता, कोई कहीं कुश्ती लड़ते तो कोई कहीं गुरु जी द्वारा बताए गए पैतरों का अभ्यास करते। सारे छात्र कोई न कोई अभ्यास में लगे थे। तभी गुरुजी का आना हुआ। गुरुजी का नाम वीर सिंह था। वे इलाके के सर्वश्रेष्ठ पहलवान थे। गुरु जी को आते देख सभी छात्र अपने-अपने स्थान पर खड़े हो प्रणाम कर कतार में लग गए। अनुशासन ही विद्यालय की शोभा होती है यह यहाँ साफ तौर पर दिखाई पड़ रही थी।
गुरु जी प्रशिक्षण प्रारंभ करने ही वाले थे कि एकायक एक लड़का दौड़ता हाँफता आया और गुरु जी के चरणों पर गिर कर रोने लगा। ऐसा लगता था मानो उसे किसी ने मारा हो या कहीं डर गया हो। गुरु जी ने उसे प्यार से उठाया, आँसू पोछा और पूछा - "बेटे तुम्हारा नाम क्या है? तुम क्यों भागे-भागे मेरे पास आकर रो रहे हो? क्या किसी ने तुम्हें मारा है या तुम डर गए हो? क्या कारण है? जो तुम भयभीत हो, बोलो-बोलो निर्भय होकर बोलो। यहाँ किसी से डरने की कोई बात नहीं है। हम तुम्हें अभय देते हैं।" गुरु जी की स्नेह पूर्ण बातों को सुनकर लड़के ने कहा - "मेरा नाम विक्रम है। मैं दूर गाँव से आया हूँ। न तो मुझे किसी ने मारा है और न ही मैं डरा हुआ हूँ। यहाँ आने का मेरा मूल उद्देश्य आपसे पहलवानी सीखना है। आप सिखाएँगे न गुरुजी! आप सिखाएँगे न! गुरुजी ने उसे समझाया कि अभी तुम छोटे हो, अभ्यास की कठोरता को तुम सहन नहीं कर सकते, पहलवानी के लिए बलिष्ठ शरीर की आवश्यकता पड़ती है, जो अभी तुम्हारे पास नहीं है, बड़ा होकर आना, हम तुम्हें अवश्य पहलवानी सिखाएँगे। नहीं-नहीं, हम अभी से ही सीखेंगे, हमें सिखाइए। लड़का जिद कर ही रहा था कि उसके पिताजी भी लपके-लपके चले आए। लड़के की जिद को देखकर उसके पिता ने कहा - "सीखना चाहता है तो सिखाइए। लड़का अभी 10 साल का है, धीरे-धीरे सीख जाएगा।" लड़के के पिता के बातों से बाध्य होकर गुरु जी को सिखलाने पर राजी होना पड़ा।
विक्रम को सिखलाते हुए गुरु जी को 15 साल हो गए। विक्रम 25 वर्ष का हट्टा-कट्टा नौजवान हो चुका था। उसके जैसा होनहार छात्र गुरुजी को कभी कोई नहीं मिला था। उसके लगन, मेहनत, विश्वास एवं कार्य कुशलता को देख गुरुजी फूले न समाते थे। जो भी दाव गुरु जी बताते, बहुत जल्द उसे करके वह दिखा देता। अभ्यास में कभी कमी नहीं आने दी, शरीर फौलाद-सा बन चुका था। इन 15 वर्षों में विक्रम ने गुरुजी से सैकड़ों दाव पेंच सीखा। बहुत से पहलवानों से कुश्ती लड़ा, मल युद्ध किया, प्रतियोगिताओं को जीता, हर तरह की परीक्षाओं में प्रथम स्थान पर रहा। वह इलाके का नामी पहलवान बन चुका था। गुरुजी के बाद विक्रम का ही नाम गर्व के साथ लिया जाता था। विक्रम सफलता पाने के बाद भी गुरु जी की सेवा और अपनी लगन में कमी नहीं आने दी। उसकी गुरु भक्ति एवं लगन को देखकर गुरु जी ने उसे अपना परम शिष्य मान गुप्त दावों को भी सिखा दिया, जिससे वे अपनी गुरुता को बनाए हुए थे।
इस गुप्त ज्ञान को पाने के बाद विक्रम गुरुजी के बराबरी का हो गया। वह अपने को महान समझने लगा। उसके अंदर अभिमान की जड़ जमने लगी। वह मतवालों की भांति कर्म करता तथा अभिमान में आकर कभी-कभी गुरु जी की भी उपेक्षा कर देता। अभिमान ने उससे नित्य नए-नए कुकृत्य करवाने लगे। गुरुजी के पास उलाहने पर उलाहने आते। गुरु जी विक्रम को नित्य प्रति समझाते। पर, गुरु जी की बातों का उस पर कोई असर नहीं पड़ता। अंत में गुरु जी ने क्रोध में आकर उसे अपनी व्यायामशाला से निकाल बाहर किया। विक्रम पूर्ण रुप से स्वतंत्र हो चुका था। मनमानी करने से बाज न आता। उसके अत्याचार का मुकदमा राज दरबार में गया। सैनिक उसे पकड़कर ले गए।
दरबार लगी थी। राजा भीष्मराय सिंहासन पर बैठे थे। सभासद अपनी-अपनी जगहों पर आसन जमाए थे। विक्रम की पेशगी का समय आया। सैनिक उसे दरबार में हाजिर किए। गाँव वालों ने कहा - "महाराज यह दुष्ट बड़ा ही निर्दयी है, क्रूर मिजाजी है, इसकी अत्याचार और घिनौनी हरकतों को बयान करते हुए हमें शर्म आती है। गाँव में उत्पात मचा रखा है इसने। इसे कड़ी से कड़ी सजा दें, जिससे फिर यह लोगों को न सताए।"
राजा ने अत्याचारी (अपराधी) से पूछा :- "तुम्हारा नाम क्या है?"
"विक्रम नाम है मेरा" - विक्रम ने जवाब दिया। "सुना है, तुम अपने इलाके के नामी पहलवान हो" - राजा ने पूछा।
"जी हाँ" - विक्रम ने जवाब दिया।
"तुम्हारे गुरु जी का नाम" - राजा ने पूछा।
"मत पूछिए मेरे गुरु का नाम। वह दुष्ट मेरा गुरु नहीं - शत्रु है। उसने मुझे अपनी व्यायामशाला से निकाला है, मैं उसे जिंदा नहीं छोड़ूँगा, मार डालूँगा मैं उसे" - विक्रम ने आवेश में बोला।
"फिर भी तुम्हारे गुरु का नाम क्या है ?" - राजा ने फिर पूछा।
"वीर सिंह" - विक्रम रूँधे स्वर में बोला।
वीर सिंह का नाम सुन राजा चौक पड़ा और कहा - "क्या? क्या तुम्हारे गुरु जी वीर सिंह हैं? विक्रम! वीर सिंह को तुम नहीं जानते। वीर सिंह तुम्हारे शत्रु हैं ऐसा नहीं हो सकता। तुम्हारे बुराइयों से तंग आकर वे तुम्हें अपनी व्यायामशाला से निकाले होंगे। वीर सिंह किसी के शत्रु नहीं हो सकते। वे सिर्फ तुम्हारे ही गुरु नहीं, मेरे भी गुरु हैं। तुम उन्हें नहीं मार सकते। उनसे मुकाबला लेना तेरे बस की बात नहीं। उनसा बहादुर मेरे राज्य में कोई पहलवान नहीं।"
"उनसा बहादुर कोई नहीं, ऐसा नहीं है राजन! उन्हें तो मैं एक हाथों से उठाकर पटक सकता हूँ। उनके सारे पैतरों का काट है मेरे पास। अरे! वे क्या मुझ से लड़ेंगे? वे तो बूढ़े हो गए" - विक्रम ने व्यंग पूर्ण शब्दों में कहा।
राजा ने विक्रम के व्यंग को सुन क्रोध में आकर खुली घोषणा कर दी कि अगले महीने के 30 तारीख को विक्रम एवं वीर सिंह का मुकाबला वज्रा मैदान में होगा। समय प्रातः 8:00 बजे रखा गया। विक्रम कोई यह सुन बड़ी प्रसन्नता हुई, क्योंकि उसे बदला लेने का अवसर मिलने वाला था।
गुरुजी घर के बाहर चारपाई पर लेटे थे। थकान के कारण कभी-कभी झपकी भी ले लेते थे। जरा सी नींद लगी थी कि रथ की घर्र-घर्र की आवाज से टूट गई। वे चारपाई से उठते कि तब तक राजा भीष्मराय की रथ दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई। भीष्मराय ने रथ से उतरकर गुरु जी को प्रणाम किया और समाचार ली। गुरुजी ने झटपट लोटा में जल लाया और आवभगत की। राजा ने गुरु जी से कहा - "गुरु जी! आपका शिष्य विक्रम बड़ा ही उदंड हो गया है, अत्याचारी बन गया है, उसे मैंने बहुत समझाया पर वह एक न माना, उसे अपनी शक्ति और आपके सिखाए पैतरों पर अभिमान हो गया है, वह आप ही से मुकाबला लेना चाहता है। वह कहता है मैं गुरु जी को भी हरा दूँगा। वह आपको कुछ समझता ही नहीं। उसके द्वारा आपकी हँसी उड़ाने पर मैंने अगले महीने के 30 तारीख को सुबह 8:00 बजे से वज्रा मैदान में उसके तथा आपके बीच मुकाबले की खुली घोषणा कर दी है। आप उसे हराकर उसका अभिमान मिटा दीजिए और अपनी गुरुता बचा लीजिए।"
"राजन! भला मैं विक्रम को कैसे हरा सकता हूँ। वह मेरी संपूर्ण विद्याओं को जानता है। कोई दाव मैंने उससे छुपा कर नहीं रखा। अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ और वह जवान। किसी भी सूरत में मैं उसे नहीं हरा सकता" - गुरूजी ने अपने को असमर्थ घोषित करते हुए कहा।
"चाहे जो भी हो। आपको उसे हराना है, अपनी गुरुता आपको बचानी है। महीने भर आप जमकर अभ्यास कीजिए और उसे हराइए।" - यह कह कर राजा चला गया।
गुरुजी चिंतित हो वहीं खाट पर पड़ गए। विक्रम एक गंभीर प्रश्न था जिसका हल उनके वश में नहीं था पर उन्हें ही हल करनी थी। वह बड़े उलझन में थे। खाना-पीना उन्हें सुहाता नहीं था। वे मरना चाहते थे। तभी उनकी पत्नी ने उनसे आकर पूछा - "यह अनशन का कारण क्या है जरा मैं भी तो जानू ?"
"विक्रम! विक्रम कारण है मेरे अनशन का। अगले 30 तारीख को वज्रा मैदान में मेरा और विक्रम का मुकाबला होने वाला है। राजा भीष्मराय आए थे। उन्होंने विक्रम को हराने को बोला है। भला, विक्रम को मैं कैसे हरा सकता हूँ। तुम तो जानती हो कि मैनें उसे अपने गुप्त दावों को भी सिखला दिया है। अब वह जवान हो गया और मैं बूढ़ा" - गुरुजी निराशा भरे शब्दों में बोले।
"अच्छा तो यह कारण है। समझ लीजिए निवारण हो गया। आप खाना-पीना मज़े से खाएँ। 30 तारीख को आप 10 मिनट विलंब से मुकाबले में जाएँगे। बाकी मैं संभाल लूँगी" - गुरु जी की पत्नी ने कहा।
गुरु और शिष्य के मुकाबले का वह 30 तारीख आ गया। सुबह 6:00 बजे से ही वज्रा मैदान में भीड़ लगनी शुरू हो गई। 7:30 बजते-बजते मैदान भीड़ से खचाखच भर गया। कहीं पैर रखने की भी जगह नहीं थी। आखिर गुरु-शिष्य की मुकाबला है। कोई सामान्य मुकाबला नहीं। वह भी ऐसे गुरु-शिष्य जो एक दूसरे से कोई कम न थे। विक्रम समय से पूर्व ही आकर घमंड के साथ बैठा था। 8:00 बज चुका, गुरु जी अभी तक नहीं आए। राजा के दूत गुरु जी के घर पर फौरन गए। दूत को गुरु जी की पत्नी ने यह कहकर वापस भेज दिया कि गुरु जी अभी-अभी कटोरादाव का अभ्यास कर रहे हैं। बस 10 मिनट में पहुँचने ही वाले हैं। दूत ने आकर राजा को खबर दी। राजा ने दर्शकों को संबोधित कर कहा - "भाइयों! कृपया आप लोग धीरज रखें। गुरु जी अभी-अभी कटोरादाव का अभ्यास कर रहे थे 10 मिनट में आने ही वाले हैं।"
विक्रम कटोरादाव का नाम सुन चौक पड़ा। वह इस नाम का दाव गुरुजी से कभी नहीं सीखा था। वह सोचने लगा कि क्या गुरुजी मुझसे यह दाव छुपाकर रखे थे। हो न हो गुरुजी इसी दाव से मुझे हराएँगे। आखिर, अन्य सभी दाव तो मैं जानता हूँ। यही एक दाव मेरे दिमाग से परे है। कटोरादाव उसके मन मस्तिष्क में पूरी तरह घर कर गया। मन-ही-मन उसने हार कुबूल कर ली। कटोरादाव का नाम उसके मनोबल को कायर बना दिया। वह पसीने से तर हो गया। सिर चक्कर खाने लगा। उसके पैरों तले भूमि खिसकने लगी। वह घबरा गया।
गुरुजी को आते ही विक्रम उनके पैरों पर गिर पड़ा। वह कहने लगा - मैं जानता हूँ गुरु जी आप मुझे कटोरादाव से ही हराएँगे। क्योंकि, यही एक दाव आप मुझसे छुपाकर रखे हैं। मैं बहुत बुरा हूँ, मुझ-सा नीच इस दुनिया में कोई नहीं होगा। मैं गुरु द्रोही हूँ, पापी हूँ, मुझे सजा मिलनी चाहिए।
इस तरह उसे पश्चाताप करते हुए देख गुरु जी उसे पैरों से उठाकर हृदय से लगाया। फिर कहा - "अच्छे शिष्य अभिमान नहीं किया करते। तुम मेरी सारी की सारी दावों को जानते हो इसमें कोई संदेह नहीं। कटोरादाव वस्तुतः कोई दाव नहीं। तुम्हारे अंदर के अभिमान को मारने का एक मनोवैज्ञानिक तरीका था। तुम कल भी मेरे शिष्य थे, आज भी हो और आगे भी रहोगे।"
- आचार्य धनंजय पाठक
पनेरीबाँध, शाहपुर, डालटनगंज, झारखण्ड
पेशा - सहायक शिक्षक
प्रकाशित कृति - (1) हिन्दी पूजा विधि, (2) बत्तीसा सेवापराध
प्रकाश्य कृति - (1) सारस्वत (काव्यसंग्रह), (2) समरोपदेश (काव्य), (3) सूत्रबंध (नाटक)
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