भेदभाव - by Kumar Avishek Anand


भेदभाव

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रामधनी अपनी पत्नी रधिया के साथ एक गाँव में रहता था। पुश्तैनी जमीन में दो बीघा जमीन रामधनी के हिस्से में थी। उसी में साग-सब्जी उगाता और ठेले पर सब्जियाँ बेचकर किसी तरह गुजारा करता। शादी के दस वर्ष हो गए पर रधिया को कोई संतान नहीं थी। सब्जी बेचकर तो किसी तरह गुजारा चल जाता पर संतान नहीं होने का दुख उन लोगों को बर्दाश्त नहीं होता। गाँव में लोग कभी-कभी ताने भी मार देते जिससे कलेजा फट-सा जाता। घर का कामकाज करते-करते घंटों संतान का सपना देखते रहती। कोई जड़ी-बूटी देता कोई झाड़-फूक करने की सलाह। कोई मंदिर भेजता तो कोई मस्जिद भेजता, बेचारी संतान हासिल करने के लिए जो जैसा कहता वैसा करती। स्कूल के मास्टर ने कहा रामधनी रधिया को शहर के किसी अच्छे अस्पताल ले जा और वहाँ इलाज करा, बेवजह इन जड़ी-बूटियों और मंदिर मस्जिद के चक्कर में ना पड़।


रामधनी को मास्टर साहब की सलाह अच्छी लगी। बचत तो कुछ खास करता नहीं फिर भी जो भी बचे हुए रूपए पैसे लेकर रधिया के साथ निकल पड़ा शहर की ओर रामधनी। एक अच्छे अस्पताल में किसी तरह नंबर लगवाया, डॉक्टर ने चेकअप किया दवाई दी, फिर महीने बाद बुलाया। इस तरह सही से लगातार इलाज होने के बाद रामधनी और रधिया का जैसे भगवान ने सुन ली और उन्हें जुड़वा बच्चे पैदा हुए। जिसमें एक लड़की और दूसरा लड़का। अचानक इस प्रकार की खुशी पाकर ऐसा लगा दोनों बौरा गए हों।


इलाज एवं बच्चों के जन्म के दौरान बचे-खुचे सारे पैसे खत्म हो चुके थे। रामधनी के पास दो बच्चों की जवाबदेही बढ़ चुकी थी। जितनी सब्जियाँ उसके खेतों में होती उसे बेचकर अब खर्चे चलाना मुश्किल होने लगा। किसी तरह गाँव के साहूकार से कर्ज लेकर रामधनी ने एक रिक्शा खरीदा। रामधनी सुबह से दोपहर तक रिक्शा चलाता और शाम को ठेले पर सब्जियाँ बेचने लगा। बड़े प्यार से बेटी का नाम रखा धन्नो और बेटे का नाम रखा कृष्णा। धीरे-धीरे दोनों का लालन-पालन होने लगा।


रामधनी के दिन- रात की कड़ी मेहनत से आर्थिक स्थिति में भी सुधार होने लगी पर गाँव और समाज के मानसिक विकृति से रामधनी और रधिया की खुशी अधिक दिन नहीं टिकी नही रह पाई। समाज के कुछ लोगों की गंदी मानसिकता ने बेटे और बेटी के बीच की दूरी का फर्क रामधनी और रधिया के दिलो-दिमाग में कूट-कूट कर भर दिया। जिसका असर दोनों बच्चों के लालन-पालन पर साफ दिखने लगा। कृष्णा का गाँव के ही स्कूल में दाखिला कराया गया पर धन्नो घर में रहकर माँ के रसोई में हाथ बटाया करती। कृष्णा को गरम-गरम रोटी परोसे जाते पर धन्नो बासी रोटी, चाय से काम चलाती। गलतियाँ कृष्णा करता, सजा धन्नो भुगतती। कितनी बार धन्नो ने माँ से स्कूल में दाखिला के लिए मिन्नतें की पर रधिया विवेकहीन होकर ताने मार देती। धन्नो लालच भरी निगाह से कृष्णा के परवरिश को देखा करती और गुमसुम अपने लड़की होने के अहसास को कोसा करती।


लड़की होने के अभिशाप ने धन्नो का बचपन खत्म हो गया। इसी तरह दिन बीतते गया। गाँव के ही उच्च विद्यालय से कृष्णा ने माध्यमिक परीक्षा पास की। आगे शहर के कॉलेज में दाखिला के लिए रामधनी से जिद करने लगा। रामधनी ने कृष्णा के जिद को जैसे-तैसे पूरा किया और शहर के कॉलेज में दाखिला दिलवाया, जहाँ से कृष्णा ने इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की। फिर अपने एक दोस्त के साथ माता-पिता के भावना को नजरअंदाज कर कृष्णा मुंबई जैसे महानगर में अपना भाग्य आजमाने चला गया। इधर रूप, गुण और यौवन से संपन्न धन्नो बिना अपने भविष्य की परवाह किए माता पिता के गृहस्थी में रम गई। शायद धन्नो को सपने देखने का भी हक़ नही था। 


पुत्रमोह में रामधनी और रधिया इस प्रकार मग्न हो गई कि उन्हें पता ही नहीं चला की धन्नो कब सयानी हो गयी। जो भी बचत की गई थी, बेटे को पढ़ाने-लिखाने एवं मुंबई भेजने में चला गया। अब तो यही आशा थी कि जल्दी से कृष्णा मुंबई में कहीं सेट हो जाए ताकि परिवार की जबाबदेही निभा सके। रामधनी की उम्र हो चुकी थी। पहली जैसी क्षमता शरीर में नहीं रही, जो दिन-रात मेहनत किया जा सके। घर में संपत्ति के नाम पर कुछ बर्तन, झोपड़ीनुमा घर और दो बीघा जमीन। कैसे होगी धन्नो की शादी, इसी चिंता में कमर टेढी होने लगी। उधर कृष्णा के भाग्य ने साथ दिया और मुंबई में एक बड़ी कंपनी में सुपरवाइजर की नौकरी लग गई। रहना-खाना मुफ्त और प्रतिमाह तीस हजार रुपये तनख्वाह अलग से। पैसे की लत और शहर के चकाचौंध ने कृष्णा का जमीर बदल दिया। ना माँ-बाप की कोई चिंता और ना बहन के शादी की कोई फिक्र।


मरता क्या न करता, रामधनी बेटी को कोसते हुए पुश्तैनी दो बीघा जमीन को औने-पौने दाम पर बेचकर और कुछ इधर-उधर से कर्ज़ ले गाँव से पाँच कोस की दूरी पर आखिर धन्नो के हाथ पीले कर दिए। पर अपने बहन की शादी में भी कृष्णा गाँव नहीं आया। बेटे द्वारा इस तरह मुँह फेर लेने से रामधनी और रधिया को गहरा झटका लगा। जिस बेटे के पालन-पोषण में कभी कोई कमी नहीं छोड़ी, आज वही बेटा इस तरह अपने घर परिवार से मुँह फेर लेगा, ऐसी उम्मीद रामधनी और रधिया को कभी नहीं थी। अब तो बेटा माँ-बाप का फोन उठाना भी मुनासिब नहीं समझता। धन्नो के साथ शुरू से ही माँ-बाप ने उसके परवरिश में अन्याय किया, फिर भी धन्नो हर महीना खैरियत जानने अपने माँ बाप से मिलने चली आती। साथ ही कुछ ना कुछ सौगात भी साथ लाती। कभी दो जोड़े कपड़े लेते आती ,कभी जूते, कभी खाने को दो बोरे चावल लेते आती। इस तरह धन्नो कुछ ना कुछ अपने मां-बाप के लिए हमेशा करती रहती। रामधनी और रधिया अपने कृत्य के लिए कभी भी धन्नो से नजरें नहीं मिला पाती। धन्नो का पति सुरक्षा गार्ड था। आमदनी उतनी नहीं थी पर दिल बड़ा था। इसलिए जो जिंदगी धन्नो अपने माता पिता के घर में नहीं जी पाई, वह अपने पति के साथ कम आमदनी में भी खुश होकर स्वतंत्र विचार के साथ जिया करती। उसका पति हमेशा उसका सहयोग करता।


माता-पिता को पुत्र के त्याग और पुत्री के एहसान ने इस तरह तोड़ दिया की रधिया ने पुत्र वियोग में प्राण त्याग दिया। रामधनी पर मानो बज्रपात हो गया, जब पुत्र ने माँ के दाह संस्कार में आना जरूरी नहीं समझा। धन्नो ने जब सुनी तो दौड़ी चली आई। टूटते हुए पिता को सहारा दिया। गाँव वाले के विरोध के बावजूद पुत्री होते हुए एक पुत्र का कर्तव्य निभाया और माँ को मुखाग्नि दी। पूरा गाँव स्तब्ध था। रामधनी शमशान के कोने में बैठ कर धन्नो के प्रति किए गए अन्याय को याद कर अपने को कोस रहा था और बिलख-बिलख कर धन्नो से माफी माँग रहा था। अपने पिता के पश्चाताप भरे आंसू को पोछ कर धन्नो इस प्रकार रोने लगी, मानो उसके साथ कभी कुछ हुआ ही नही था। रधिया प्रज्वलित अग्नि से धधक-धधक कर पिता और पुत्री के स्नेह मिलन को देख रही थी। लड़की को बोझ समझने वाले नासमझ लोग शमशान की उस भूमि में एक नई सीख के साथ बेटी और बेटे के बीच के भेदभाव के विचार या सोच को उस अग्नि में स्वाहा कर रहे थे।


- कुमार अभिषेक आनंद

छोटा पंचगढ़, जिला-साहिबगंज (झारखंड)

प्रखंड कार्यक्रम पदाधिकारी (झारखंड सरकार)

रूचि - साहित्य लेखन

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