समय की लाठी - by Prem Kumar Tripathi 'Prem'


समय की लाठी

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बुक्का बुआ अपने माँ बाप की इकलौती संतान थी। वैसे तो बुक्का बुआ के बाद उसके 3 भाई और पैदा हुए थे पर सालों पहले आई हैजे की महामारी में एक के बाद एक तीनों ही काल के गाल में समा गए थे। घर में अब माँ-बाप के साथ बुक्का बुआ अकेली रह गयी थी। वक़्त के साथ जब बुक्का बड़ी हुई तो उनका ब्याह बगल गाँव की हरिजन बस्ती के रामलाल के साथ कर दिया गया। रामलाल को उसके गाँव भर के बच्चे परेशान करने के लिए ‘रामलाल फूफा’ कह कर बुलाते थे, तो शादी के बाद उसी ढर्रे पर चलते हुए बुक्का को भी लोग ‘बुक्का बुआ’ कह कर बुलाने लगे। रामलाल की तरह बुक्का को भी इससे कोई एतराज़ नहीं था। वैसे तो रामलाल के हिस्से में उसके गाँव में बिस्वा भर जमीन थी जिस पर मौसमी सब्जियाँ लगा कर वह अपना गुज़ारा कर लेता था पर बाप के मरने के बाद उसके तीन भाइयों ने उसकी जमीन कब्जा कर आपस में बाँट ली और शारीरिक रूप से कमज़ोर रामलाल इस हिस्सेदारी के झगड़े में सिर पर लाठी खाकर परलोक सिधार गया। पति की मौत और जायदाद से बेदखल होने के बाद बुक्का के पास मायके वापसी के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था। वह अपने दस बरस के बेटे अंतिमलाल और कुल संपत्ति के नाम पर बची दो गायों के साथ वापस मायके लौट आई। माँ-बाप के गुज़र जाने के बाद मायके का मकान भी रिहाइश के लायक नहीं बचा था फिर भी उसी पर छान-छाप्पर डाल कर बुक्का ने अपनी बची खुची जिंदगी को समेट कर नए सिरे से शुरुवात करने की कोशिश की।


वक़्त का पहिया तेजी से घूम चला था। बुक्का बुआ ने लोगों के खेत में मजदूरी कर के गुजारा करने की मजबूरी को अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का अभिन्न हिस्सा मान लिया था। पिछले बरस ही उसने अपने इकलौते बेटे अंतिमलाल का ब्याह भी कर दिया था। बहू भी अब पेट से थी। उसे लगने लगा था की उसकी जिंदगी ढर्रे पर लौट आई है, बस एक बार अपने पोते का मुँह देख ले तो सुकून से मर सकती है। पर ईश्वर कब किसकी ज़िंदगी की पटकथा में कौन सा अध्याय जोड़ दे, इसका भान इस संसार के किसी प्राणी के वश की बात नहीं है।

हर भारतीय गाँव की तरह बुक्का बुआ के गाँव में भी जातिवाद के जहर से जन्मे कुछ दबंगों का राज़ था जो अपने डंडे के बल पर लोगों से बंधुआ मजदूरी करवाने को, स्वयं को एक जाति के रूप में मिला विशेषाधिकार मानते हैं। सामाजिक संरचना के शीर्ष पर बैठे इन चंद लोगों को दूसरे सभी लोग दोयम दर्जे के नागरिक लगते हैं। जवाहर सिंह उर्फ ‘डैनी’ बुक्का बुवा के गाँव का ऐसा ही दबंग था जो निहायत ही बदजुबान, बददिमाग और गुस्सैल व्यक्ति था।


एक रोज गाँव का डैनी सुबह सुबह बुक्का बुआ के दरवाजे पर पहुँचा। बुक्का बुवा दरवाजे पर ही अपने बेटे अंतिम लाल के साथ दूसरे के खेतों से बिन कर लाई गयी गेेहूँ के बालियों को साफ करने में जुटी थी। डैनी ने बुक्का बुआ से भूसा ढोने को कहा। बुक्का बुवा ने पहले ही किसी के खेत पर भूसा ढोने का काम ले लिया था। उन्होने काम की अधिकता बता कर असमर्थता जताई तो डैनी ने उसके लड़के अंतिमलाल से कहा। दो दिन पहले ही किसी घर में मजदूरी करने के दौरान अंतिमलाल के पाँव में मोच आ गई थी तो वह भी कन्नी काट गया। अब डैनी का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया था। कथित तौर पर ‘नीची जाति’ के किसी व्यक्ति द्वारा कथित ‘ऊँची जाति’ के आदेश की अवहेलना डैनी की दृष्टि में अक्षम्य अपराध जैसा था।


“ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी” डैनी ने अब अपने आदेश को मनवाने के लिए रामचरित मानस का उसी तरह फायदा उठाने की कोशिश की जैसा कई सदियों से उन जैसे लोग गलत व्याख्यानों का सहारा लेकर करते आए हैं।डैनी बुक्का बुवा के घर से वापस तो आ गया था पर उसे अपने अहं पर लगा यह धक्का कतई बर्दाश्त नहीं था। थोड़ी देर बाद ही वह अपने तीन बेटों के साथ लाठी-डंडे से लैस बुक्का बुआ के घर पहुँचा और गालियों की बौछार के साथ माँ बेटे पर टूट पड़ा। खेत में घुसे किसी पागल हाथी की तरह चारों ने पूरे घर को तहस-नहस कर दिया। घर में पड़े समान बाहर फेंक दिये, छप्पर में आग लगा दी, यहाँ तक कि खूँटे से बंधे मवेशी तक खोल ले गए। डैनी का गुस्सा इतने में भी शांत नहीं हुआ। उसने बुक्का बुवा के बेटे अंतिमलाल को पीट पीट कर मरणासन्न कर दिया। यहाँ तक की बुक्का बुवा और उसकी गर्भवती बहू को भी नहीं बख्शा।


मार-पीट के बाद मौके पर पहुँची पुलिस भी मानो डैनी जैसे दबंगों के प्रभाव में थी। अंतिमलाल के ऊपर डैनी के घर में घुस कर चोरी करने का इल्ज़ाम लगा कर चालान कर दिया। पुलिस ने अपने आरोपपत्र में लिखा "अंतिमलाल वल्द रामलाल डैनी के घर में धारदार हथियार के साथ रात में चोरी करने के इरादे से घुसा, घर की औरतों के जाग जाने और शोर मचाने पर उन्हे जान से मारने की धमकी देने लगा। ऐसी परिस्थिति में आत्मरक्षा के इरादे से डैनी और उसके बच्चों ने अंतिमलाल पर हमला किया।" पुलिस वालों ने डैनी के दबाव में घटनास्थल और घटना का समय तक बदल दिया।


बेचारी बुक्का बुआ, जिसने आज तक गाँव से बाहर कदम तक नहीं रखा था, उन्हें इस तरह के षडयंत्रों के बारे में कुछ पता नहीं था। वो महीनो तक बेटे को छुड़ाने के लिए पहले थाने और फिर कचहरी के चक्कर लगाती रही। ईश्वर और उसके न्याय संबंधी सारी कहावतों, सूक्तियों और लोकोक्तियों से बुक्का बुआ का भरोसा उठ चुका था। अंतिमलाल की पेशियों पर कचहरी से लौटते समय बुक्का बुवा अक्सर सड़क के किनारे बने एक मंदिर प्रांगण में बैठ कर सुस्ताया करती थी। मंदिर की उस चौखट पर भी बुआ ने ऊपरवाले से कुछ माँगना बंद कर दिया था। बहू के मायके से मिले कुछ गहनों को बेच कर बुआ कचहरी का खर्च अदा कर रही थी।


घोर निराशा के दौर से गुज़र रही बुक्का बुआ के लिए एक बार फिर वक़्त का पहिया घूमा और शायद ईश्वर ने बुक्का बुआ के जीवन की पटकथा में एक और नया अध्याय जोड़ा। गाँव से लगे थाने में एक नए थानेदार की तैनाती हुई, जिसके कड़क मिजाज और ईमानदारी के किस्से पूरे जिले में प्रसिद्ध थे। थानेदार ने लगातार मिल रही शिकायतों को देखते हुए पुराने सभी मामलों में फिर से तहक़ीक़ात करने का फैसला किया। अंतिमलाल की फ़ाइल भी दोबारा खोली गई। गाँव से संबन्धित कई मामलों मे डैनी का नाम आने पर थानेदार ने डैनी के घर दो सिपाहियों को तहक़ीक़ात के लिए भेजा। ताकत और पैसे के घमंड में चूर डैनी और उसके बच्चों ने सिपाहियों को गाली गलौज देकर घर से भगा दिया। थानेदार को ये बात बहुत नागवार गुज़री। वह पूरे दल-बल के साथ जब डैनी को गिरफ्तार करने उसके घर पहुँचा तो डैनी के छोटे बेटे ने न आव देखा न ताव और थानेदार पर फायर झोंक दिया। गोली थानेदार को छू के निकल गयी। गिरफ्तारी से बचने के लिये डैनी और उसके बेटे घर से फरार हो गए।


पुलिस पर हमले के बाद डैनी के बुरे दिन शुरू हो गए। लगातार दबिश डालकर पुलिस ने डैनी को गिरफ्तार कर लिया जबकि डैनी के तीनों बेटे पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ में मारे गए। इधर अंतिमलाल के मामले में भी जांच करने पर उसके निर्दोष होने की बात सामने आई। वक्त का पहिया पूरी तरह घूम चुका था। डैनी अपने कुकर्मों के कारण जेल पहुँच चुका था और अंतिमलाल को अदालत से रिहाई मिल गई थी साथ ही झूठे मुकदमे में फँसाने के आरोप में उसे डैनी से एक लाख रुपए का हर्जाना भी दिलाया गया।


कचहरी से वापसी के वक़्त बुक्का बुआ और अंतिमलाल उसी मंदिर के प्रांगण में रुके। जेल में होने के कारण अंतिमलाल को डैनी से संबन्धित प्रकरण की कोई जानकारी नहीं थी। "ई सब कैसे हुआ अम्मा ?" उसने पूछा। बुक्का बुआ कुछ देर सोचती रही फिर बोली "बबुवा, ऊपरवाले के घर देर है अंधेर नहीं। वहाँ अदालत भी वही है, जज भी वही है और वकील भी। उसको अपने फैसले सुनाने के लिए गवाहों और सबूतों की जरूरत नहीं होती। वो खुद ही सर्वशक्तिमान है, सब कुछ खुद ही देखता सुनता है, खुद ही समय के हिसाब से फैसले लेता है और समय की लाठी की आवाज नहीं होती बबुवा।" इतना कह कर बुक्का बुवा ने मंदिर के गर्भगृह में रखी मूर्ति को प्रणाम किया और घर की ओर लौट पड़ी।


- प्रेम कुमार त्रिपाठी 'प्रेम'

प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश

अपनी रचनाओं के लिए विभिन्न सम्मानों से सम्मानित

प्रकाशित पुस्तकें - कहानी संग्रह (1) सबक, (2) लीला, (3) दो मुट्ठी चावल, (4) घर वापसी

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