गिन्नी मासी - by Sanjay Srivastava
गिन्नी मासी
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बचपन से ही गिन्नी मासी को देख रहा था। कोई परिवर्तन मासी में कभी भी दृष्टिगत नहीं हुआ था। साधारण नयन नक्श लेकिन हमेशा मुस्कुराती रहती थी, कपड़े दो चार साड़ी एक बक्शे में लेकर किसी भी आयोजन में अपने रिश्तेदारों के यहाँ प्रकट हो जाती थी। जबकि विधवा होने के बाद अपने ही लोग तवज्जो नहीं देते थे। फिर भी कोई गिला शिकवा करना शायद मासी ने कभी सीखा ही नहीं था। उनके दो बेटे अलग-अलग शहर में अच्छी नौकरी करते थे। लेकिन कभी मासी को इतराते नहीं देखा था। मेरे घर के लोग और रिश्तेदारों को जब भी अवसर मिलता उनको हँसी-हँसी में कंजूस जरूर बोल जाते थे।
मेरी शादी में भी वह चार दिन पहले से आकर हर काम में देख-रेख कर रही थी और हर एक काम को बहुत ही तरतीब ढंग से निपटा रही थी और बीच-बीच में मेरे पापा को डांट भी देती थी कि ज्यादा महँगी चीजें खरीदने की जरूरत नहीं हैं। इसपर मेरे चाचा-चाची, फुआ और रिश्तेदार लोग उनकी खिल्ली भी उड़ा जाते थे। फिर भी उन्हें जहाँ भी कुछ ऐसा-वैसा नजर आता तो बोलने से नहीं चुकती थी ।
मैं पापा की एकलौती बेटी थी, इसलिए पापा मेरी शादी में बेफिक्र होकर खर्च किए जा रहे थे। आज मेरी विदाई का दिन था और पापा घबड़ाए हूए बैंक से वापस आए और बोले की मेरे खाते में एक लाख रुपये की गड़बड़ी हो गई है और बैंक वाले बोल रहे हैं कि इसको ठीक कराने में थोड़ा समय लग जाएगा। एक तरफ नया दामाद घर में और मेरी विदाई की रस्म भी होनी थी। आज ही टेन्टवाले, बाजेवाले और हलवाई को भुगतान भी करना था। पापा का होश उड़ा हुआ था और मैं देख रही थी कि शादी में आए सभी लोग एक दूसरे के मुँह ताक रहे थे और अपना-अपना बैग को तैयार करने में व्यस्त नजर आ रहे थे। ऐसा लग रहा था मानों, पापा के परेशानी से उनलोगों को कोई लेना-देना नहीं था। मेरी मम्मी भी तनाव में आ गई थी। अब क्या होगा? इतने रुपयों की व्यवस्था कैसे होगी। मेरे खाता में बीस हजार थे और मम्मी के खाते मे भी कुछ रुपये थे। लेकिन इससे समाधान होते नजर नहीं आ रहा था। हमलोग इसी उधेड़बुन में थे, तब तक सभी लोग धीरे-धीरे वहाँ से कूच कर गए थे। उन्हें जाते देखकर पापा थोड़ा नाराज नजर आ रहे थे।
तभी गिन्नी मौसी भी वहाँ पर आ गई और बोली - "क्या हुआ?" मेरे पापा बोले - "सब तो चले गये, तुम यहाँ क्या कर रही हो।" वह बहुत ही इत्मीनान से बोली - "तुम्हें मैं परेशान देखकर रुक गई। बताओ मुझे, क्या परेशानी हैं?" मैं मन ही मन सोच रही थी कि जिनको परेशानी का समाधान करना था। वे लोग तो बिना कुछ सुने समझे चले गए और यह परेशानी सूनने आई हैं। जिसकी कोई औकात ही नहीं हैं। फिर भी मैनें उनको सबकुछ बता दिया ।
वह तुरंत मुझे अपने साथ उस बक्शे के पास ले गई जिस बक्शे की हम सभी खिल्ली उड़ाया करते थे। अपने कमर से चाभी निकालकर खोली और एक गठरीनुमा निकाल कर मुझे देती हुई बोली - "बेटी! इसमें से जितनी जरूरत हैं, उतना तुम निकाल लो।"
मैं हैरानी से देखती रह गई, उसमें पाँच-पाँच सौ के नोट भरे थे। मैं असमंजस में बोली - "इतना पैसा जमा कर रखती हो तुम!"
वह बोली - "हाँ! रुपये की अहमियत अलग है। अगर तुम्हारे पास नहीं रहे तो सब अपने भी बदल जाते हैं। दूनिया में रुपये-पैसे से ही रिश्ते बनते और बिगड़ते हैं। बुरे दिन में अपना जिसे हम समझते हैं, मानते हैं, वे सभी दूर भाग जाएँगे। उस दिन हमें यथार्थ का अहसास होता हैं। अपने में हिम्मत के अलावे गर पैसे पास में हो तो बुरे समय से अपने-आप को निकालने में सक्षम हो जाते हैं। मैंने इसके महत्व को बहुत करीब से जाना था। जो इंसान जिंदगी के सच्चाई को समझ लेता हैं और जिंदगी के झंझवातों को झेला हैं, कतई नहीं भूल सकता हैं। तेरे मौसा अच्छा-खासा कमाते थे, रुपये-पैसा पूरा लुटाते थे और जमा के नाम पर उनके पास कुछ नहीं था और जब एक बार उनकी तबीयत अचानक खराब हुई तो एक-दो रिश्तेदार और दोस्त को छोड़कर सभी लोग धीरे-धीरे कन्नी काट लिए थे।उनके अपने सगे भाइयों ने भी उनके ही हिस्से के जमीन को बेचकर कुछ खर्च किया और झूठा नाम लूटा था। उनके मरने के बाद मैंने जैस-तैसे बेटी की शादी और बच्चों को पढाया-लिखाया था। आज वे लोग जो मेरी खर्च के लिए भेजते हैं, उसी में से मैं कुछ बचाकर रखती थी। मैं सोचती थी कि कभी किसी के जरूरत में काम आ जाएगा।" मैं गिन्नी मासी की तुलना जब और अपने सभी रिश्तेदारों से करनी लगी तो मासी के सामने वे सभी चेहरे मुझे बौना नजर आ रहे थे ...।
✍️ संजय श्रीवास्तव
पटना, बिहार
सम्प्रति - प्रशासनिक अधिकारी, दी न्यू इंडिया एश्योरेंस कं.क्षेत्रीय कार्यालय, पटना
विभिन्न साझा संग्रह, समाचार पत्र एवं समाचार पत्र में रचनाएँ प्रकाशित
सम्मान - उत्कृष्ट लेखनी हेतु कई बार सम्मानित
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