नई सुबह - by Ashima Varshney 'Raj'


नई सुबह


मोनिका अपने कमरे में बैठी बैठी विचार कर रही थी, "क्या करूँ मैं, यदि मेरा मन शालिनी दीदी की तरह पढ़ाई में नहीं लगता है। मैं उनकी तरह इंजीनियर नहीं बन पाऊँगी तो क्या मैं बेकार हूँ ? मम्मी-पापा यह क्यों नहीं समझते, हर बच्चा एक जैसा नहीं हो सकता।" उसकी आँखों में आँसू भर आए। पर शीघ्र ही स्वयं को संभालते हुए उसने एक निर्णय लिया।


मोनिका अनिल तथा सुमन की छोटी बेटी थी। 11वीं कक्षा में पढ़ती थी । बड़ी बेटी शालिनी पढ़ाई में अच्छी थी तथा अभी-अभी उसके इंजीनियरिंग कॉलेज में चयन की खबर आई। सुमन ने आह भरते हुए कहा, "चलो शालिनी की तो जिंदगी सुधर गई। पता नहीं इस मोनिका का क्या होगा? पढ़ाई लिखाई में तो मन है नहीं। पता नहीं तस्वीरें बनाने और कार्ड बनाने से उसका बेड़ा कैसे पार होगा?"


मोनिका की चित्रकारी बहुत सुंदर थी। अपनी तमाम सहेलियों के जन्मदिन पर वह स्वयं ही कार्ड बनाती थी। सुंदर दीपक बनाना, तस्वीरें चिपकाकर अनूठी कलाकृतियाँ रचना उसे पसंद था। पर यह सब उसकी माँ को फूटी आँख नहीं भाता था। उनका मानना था कि पढ़ाई के अलावा बाकी सब बेकार के काम हैं। नौकरी तो मिलेगी नहीं। इन सब कामों की क्या कीमत?


माँ के शब्द मोनिका के कानों में गूँज रहे थे। मोनिका यूट्यूब पर डी आई वाई के वीडियोज़ देखा करती थी। उसके मन में एक विचार कौंधा। माँ को अपना हुनर दिखाने के लिए मोनिका जी जान से जुट गई। उसने यूट्यूब पर अपना चैनल बनाकर खुद की कलाकृति निर्माण के वीडियो डालना प्रारंभ किया। अपने सहपाठियों में यह बात फैला दी कि वह कार्ड, पेंटिंग तथा गिफ्ट्स ऑर्डर पर भी बनाएगी। धीरे-धीरे उसे काफ़ी ऑर्डर मिलने लगे। वह सभी की फोटो खींचकर इंस्टाग्राम पर    डालकर ऑनलाइन ऑर्डर भी लेने लगी।


मोनिका ने आर्ट्स विषय का चयन किया था। अतः उसे काफी समय मिल जाता था। वक्त पंख लगाकर उड़ता रहा। 12वीं में मोनिका के 70% अंक आए। सुमन अभी भी उसके इन कामों से प्रसन्न नहीं थी। पर अब डांटती नहीं थी। मोनिका जेब खर्च के लिए पैसे भी नहीं माँगती थी, बल्कि कभी-कभी घर का छोटा मोटा सामान अपने पैसों से ला दिया करती थी।


मोनिका ने आर्ट्स कॉलेज में दाखिला लिया। मोनिका वहाँ शीघ्र ही प्रसिद्ध हो गई। उसके बनाए गिफ्ट्स सब को बहुत पसंद आते थे। जन्मदिन, माता-पिता के विवाह की वर्षगांठ तथा वैलेंटाइन जैसे मौकों पर तो उसके बनाए गिफ्ट्स सबको बहुत पसंद आते थे। उसे अब बहुत आर्डर मिलने लगे। वह अकेली उन्हें पूरा करने में असमर्थ थी। काफी विचार करके वह माँ के पास गई और कहा, "माँ मुझे कई ऑर्डर मिले हैं। पर समय कम है, क्या आप मेरी मदद करेंगी?" सुमन बरस पड़ी "मेरे पास इन फालतू के कामों के लिए वक्त नहीं है। वैसे भी इन सब से क्या होता है।


मोनिका ने अपने बैंक की पासबुक माँ को दिखाई जिसमें लगभग एक लाख रुपए जमा थे। सुमन की आँखें फटी की फटी रह गईं। "इतना पैसा कहाँ से आया ?" माँ ने पूछा। "धीरे-धीरे दो साल में जोड़े हैं। यह देखो कितने लोगों ने मेरे काम की तारीफ़ की है।" मोनिका ने अपना मोबाइल दिखाते हुए कहा। यदि तुम मदद करोगी तो हम बहुत पैसे कमा सकते हैं। सबसे अहम बात यह है कि मुझे इससे खुशी मिलती है। रचनात्मक कार्य करने का आनंद प्राप्त होता है।


सुमन को लगा सही तो कह रही है मेरी बेटी। सारी दुनिया तारीफ कर रही है, पता नहीं मैं ही क्यों इसका हुनर नहीं देख पाई। सुमन ने मोनिका को गले लगाकर कहा "बेटा, मैं तुम्हारी मदद करूँगी। हम दोनों मिलकर तुम्हारे इस रचनात्मक कार्य को और आगे बढ़ाएँग। और हाँ तुम्हारे हुनर को मैं पहचान नहीं पाई इसका मुझे बहुत खेद है। उम्मीद है तुम मुझे....." मोनिका ने तुरंत माँ के मुख पर हाथ रख दिया और कहा "कोई बात नहीं माँ। तुमने जो किया मेरे भले के लिए ही किया। पर मैं तुम्हारी ही बेटी हूँ, हार नहीं मानी मैंने। कल नई सुबह के साथ हम नया जीवन प्रारंभ करेंगें" कहते हुए मोनिका ने माँ को गले लगा लिया।


- आशिमा वार्ष्णेय 'राज'

बेंगलुरु, कर्नाटक

कई अखबारों व पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित

कई साझा संग्रहों में सह-लेखिका

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