सच्ची अर्धांगिनी - by Sheetal "Devyaani"


सच्ची अर्धांगिनी

-

आज शकुंतला देवी को गुजरे पूरे 15 दिन बीत गए थे। सभी दुख में थे और जानकीदास भी अपनी पत्नी के गुजर जाने के दुख से बाहर ही नहीं निकल पा रहे थे। एक समझदार, हर सुख-दुख में उनका साथ देने वाला, उनका दुख उनसे पहले समझने वाला उनके कहीं आस पास नहीं था।


वह खुद को बहुत अकेला और असहज महसूस कर रहे थे। उनकी एक बेटी और दो बहुएँ गरिमा और महिमा दोनों मेहमानों की विदाई में व्यस्त थी। बेटी सुनैना पिता के पास आई और उन्होंने एक चिट्ठी का लिफाफा पिताजी की तरफ बढ़ा दिया और कहा - "पिताजी ! यह लिफाफा माँ ने उनकी बीमारी के समय दिया था और कहा था, बाद में अगर मैं कभी ना रहूँ तो अपने पिता को दे देना।"


जानकी दास जी ने लिफाफा खोला और अंदर एक और दो नंबर की दो चिट्टियाँ थी। उनहोने पहले नंबर की चिट्ठी के लिफाफे से खोला जिसमें कुछ ना कुछ सभी को देने की बात लिखी हुई थी और दूसरी चिट्ठी सभी परिवार सदस्यों के सामने खोलने और पढ़ने की बात लिखी थी।"


जानकी दास जी ने सभी को बुलवा भेजा। सभी आ गए और रात के खाने के बाद उस चिट्ठी को खोलना तय पाया गया। घर में शकुंतला जी की ननद, दो देवरानी, बेटी दामाद और दो बहू बेटों को छोड़कर सभी जा चुके थे। सभी खाना खाने के बाद जानकी दास जी के कमरे में आ गए और चिट्ठी के खुलने की प्रतीक्षा करने लगे। जानकी दास जी ने पहली चिट्ठी को पढ़ना शुरू किया।

 

चिट्ठी की पहली पंक्ति में जानकी दास जी को प्रणाम कर शकुंतला देवी ने अपने मन की बातों को बताया। चुँकि शकुंतला देवी एक बड़े पद पर कार्यरत थी जिसकी वजह से वह अपार संपत्ति की मालकिन थी और ससुर द्वारा दी गई सारी सम्पत्ति भी उन्हीं की निगरानी में थी।


उस चिट्ठी में उन्होंने अपना एक घर और कुछ जेवर बेटी-दामाद के नाम किया था। घर का जेवर पैसा नगदी कारोबार सभी कुछ घर के सभी सदस्यों में बराबर-बराबर बांट दिया था।


खत में आगे लिखा था :- लखनऊ वाला बड़ा मकान उन्होंने उसने सावित्री और उसके बेटे और एक बेटी के नाम कर दिया है और कुछ दस लाख रुपए सावित्री की बेटी के नाम किए हैं, जिससे वह अपने आगे की पढ़ाई कर सके और ठीक परिस्थितियों में उसकी शादी हो सके और दस लाख रूपये सावित्री के बेटे के नाम ताकी बेटा दीपक कुछ काम शुरू कर पाए।


हालाकि बाकी संपत्ति का बंटवारा सभी के बीच बराबर-बराबर कर दिया गया था, पर किसी को भी समझ नहीं आ रहा था कि, आखिर यह सावित्री देवी है कौन?, जिसके नाम पर सबसे बड़ा घर और लाखों रुपए हिस्से में दिए गए हैं।


जानकी दास जी ने सभी को बंटवारे के बाद जाने के लिए कहा, पर सभी के मन में सावित्री को लेकर सवाल थे। जानकी दास जी की बहन ने बड़ी हिम्मत कर अपने बड़े भाई से सवाल किया - "भैया यह सावित्री कौन है ?"


जानकी दास जी कुछ कहते उससे पहले ही उनकी बहन ने पत्र उनके हाथों से अपने हाथ में लेकर उसे पढ़ना शुरू किया - "आखिर वह है तो आपकी ही संतान। आपने मुझे कभी नहीं बताया, शायद आप को मुझ पर यकीन नहीं था। मैं आप दोनों और आपके दोनों बच्चों के विषय में जानती हूँ, पर वह सब आपकी जिंदगी में मुझसे पहले आए थे, जिन्हें आपने मेरे लिए और अपने बाबूजी के लिए उन्हें छोड़ दिया था। यहाँ तक कि आपने लखनऊ तक छोड़ दिया और कानपुर आ गए थे। परंतु मैंने उन्हें सदैव अपने परिवार का सदस्य समझकर हमेशा उनसे नजदीकी रखी। आज आपके मन में होगा कि मुझे कैसे पता चला कि आपका एक और परिवार है। वह आपके पिता ने उनके देहांत से पहले मुझे अपने पास बुला कर आपकी पहली गृहस्थी के विषय में बताया था और वादा लिया था कि उनके दुनिया से चले जाने के बाद उनका ओर उनके खर्चों का ध्यान रखुँगी और मैंने उनकी आखिरी इच्छा मानकर उनकी इस इच्छा का सदैव पूरे मन से सम्मान किया। अपनी पूरी जिंदगी उनका ख्याल रखा। अब मेरे जाने के बाद इस घर के बड़े बच्चों के साथ नाइंसाफी ना हो जाए। इसलिए मैंने उन्हें भी उनका हिस्सा बिना किसी बेईमानी के पूरे दिल से दिया है। मुझे आपसे कभी भी कोई दुख नहीं मिला। बस एक ही शिकायत है कि आपने कभी मुझे इस काबिल ही नहीं समझा कि मैं आपको समझ पाती। आप शायद मेरे इस बंटवारे से संतुष्ट होंगे। अब मैं चैन से जा सकूँगी।"


खत को इतना ही पढ़ने के बाद बहन पत्र भाई के हाथो में थमा कमरे से निकल जाने लगती है, क्योंकि इस रिश्ते की खबर तो उन्हें भी थी। और जाते जाते भाई से बोलती है कि ये काम तो केवल और केवल शकुंतला भाभी जैसी स्त्री ही कर सकती थी। वे सचमुच महान व्यक्तित्व थी, और आँखों में स्नेह और श्रद्धा के आँसु लिए वहाँ से चली जाती है।


जानकीदास जी खत आगे पढ़ते हैं - "अंत में आपको प्रणाम करती हूँ। आखरी वंदन आपके चरणों में समर्पित करती हूँ। आपकी अपनी शकुंतला देवी।"


जानकीदास जी शकुंतला देवी के चले जाने के बाद और अपने पहले रिश्ते के उन्हें न बताए जाने पर खुद को ही ठगा हुआ और बौना समझ रहे थे।


"मुझे माफ़ कर दो सुनयना की माँ" और जानकीदास जी की आँखों से पश्चाताप रूपी अश्रु धारा बह निकलती है।


- शीतल "देवयानी"

पता :- इन्दौर (मध्य प्रदेश)

रूचि :- लघुकथा, कहानी और काव्य लेखन

शिक्षा :- एम०ए० (सायकाॅलोजी), एम०लिब०आई०एस०सी०, एम०ए० (हिन्दी)

No comments

Powered by Blogger.