यूँ ही फिर अनंत लिखा - by Anuradha yadav
यूँ ही फिर अनंत लिखा
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मैंने मन के पतझड़ को
सदा सदा बसंत लिखा।
शून्य से सारे सपनों को
यूँ ही फिर अनंत लिखा।
गंगा किनारे पाट पर
मणिकार्णका घाट पर।
विचलित होते बैरागी मन
को मैंने सच्चा संत लिखा।
यूँ ही फिर अनंत लिखा.....
जीवन की हर पगडंडी पर
मन की भटकन साथ चली
क्षितिज पार जब दिन डूबा
साथ साथ फिर रात चली
सहज भटकते मन को मैंने
पंडित और महंत लिखा।
यूँ ही फिर अनंत लिखा......
उम्र ढली सब जीवन बीता
मन फिर भी रीता-रीता।
बाट जोहते भीगे नयनों में
आते जाते सपनों को,
जीवन भर बेअंत लिखा।
यूँ ही फिर अनंत लिखा.....
नहीं कहा था, फिर मिलने को
क्यों बाट जोहतीं थीं आँखें।
धीमी पड़ती धड़कन की
क्यों राह रोकती थीं सांसें।
भावों के हर दर्पण को
साँसों का हनुमंत लिखा।
यूँ ही फिर अनंत लिखा....
- अनुराधा यादव
भोपाल, मध्यप्रदेश
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