सूखे पत्ते - by Dr. Kumar Verma


सूखे पत्ते

-

निरपराध उड़ते रहते हैं

गिरे हुए पतझड़ में पत्ते।

हवा नृत्य में नाच रहे ज्यों

सारी धरा उन्हीं की है।।


हवा हवाई बात नहीं है

देख चुके हो वायु का जलवा।

सब बिछड़ों को गले मिलाके

मिटा रहे पत्तों सँग शिकवा।।


कोई आए हमें बटोरे

बाट जोहते सूखे पत्ते।

कोमल पत्ते उन्हें चिढ़ाते

खड़ भड़ गीत उबाऊ है।।


अलंकार रस छंद समास

मुझ पत्तों से कैसी आस।

कल तक हम भी हरे भरे थे

ठीक नहीं है यह उपहास।।


अगल बगल रह जीवन काटे

सुख दुःख दोनों मिलके बाँटे।

आने वाले कल होने हैं

अगले पतझड़ नाम तुम्हारे।।


नहीं मिलेगी फिर हरियाली

दुःख आपस में बाँट रहे हैं।

अंत काल का अंत बुरा है

अंत समय यूँ काट रहे हैं।।


थोड़ा पहले बिछड़ गए थे

दूर पेड़ ज्यों प्रियतम पत्ता।

दूंढ रहे मिल पात बेचारे

पहुँच गए जैसे कलकत्ता।।


बोरे भर कर निर्धन बच्चों

मरे हुए को मार रहे हो।

भाड़ में हमको जला जलाके

चना चबेना भून रहे हो।।


हम से भोजन हमीं दवा हैं

हमसे ही मिलती ऑक्सिजन।

हम से पेड़ हमीं से मानव

हम से सुखी बना जनजीवन।।


पत्तों से पहचान पेड़ की

हम पेड़ों को भोजन देते।

जल की कमी जहाँ भी होती

रूप बदल काँटे बन लेते।।


रँग रूप बेशक अनगिन हैं

भिन्न भिन्न आकार हमारे।

आज हमारे दुर्दिन आए

घूम रहे हैं मारे मारे।।


कहते हैं बलवान समय है

कभी हमारा कभी तुम्हारा।

जब सारी दुनिया बेबस है

क्या कर सकता पात बेचारा?


- डॉ० कुमार वर्मा

बाराबंकी, उत्तर प्रदेश

No comments

Powered by Blogger.