तलाश - by Dilip Kumar Pandey


तलाश

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हर बार किसी खंडहर में

फँसा महसूस करता हूँ।

क्योंकि मैं सौदागर नहीं

जो इस बाजार में बिक जाऊँ।

बस तुम्हारे बिछाए जाल में

थोड़ी देर हैरत में पड़ा

खंडहर में तब्दील हो गया।

मेरी अस्मिता

मुझसे सवाल

करती रही।

झंझट और जोखिम में

उठाया कदम

संघर्ष को बनाया संबल

नकारा गया।

आदर्श के चुंगल से छूटा

पसीना बहाया।

खंडहर को ठेलकर

मुक्ति आकाश

पृथ्वी, जल, अग्नि

को साथ लेकर

हमसफ़र बनाकर

आगे चलता रहा।

इंसानी फितरत

आदर्श के चोले

को उतार कर

मौसम में, हवा में

अपनी ही साँसों में

बसता रहा और

संसार को निहारता

निखरता रहा।


- दिलीप कुमार पाण्डेय

फगवाड़ा, पंजाब

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