उम्मीदों का पथिक - by Sanket singh



उम्मीदों का पथिक

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कठिन संघर्षों का दामन थामकर,
निकल पड़ा है पथिक यह ठानकर,
जब तक न हो जाऊँ खुद खड़ा पैर पर,
तब तक आऊँगा न घर को लौटकर।

कई बोझ थे वर्षों से उसके मन में,
कुछ कह न सका बस रहा उलझन में,
जीवन उसकी इस तरह ठहरी थी,
जैसे नाव फँसी हो कोई अधर में।

वर्षों से पड़े, कितने कर्जे थे उस पर,
घर की उम्मीदें थी उसके सर पर,
कब तक हाथ धरे बैठा रहता वह,
एक दिन निकल पड़ा अंजान सफर पर।

मंजिल तक पहुँचने के दरम्यान,
कई बाधाओं ने उसे आकर घेरा,
किंतु वह तो ठहरा लकीर का फकीर,
लक्ष्य तक पहुँचकर ही डालेगा वो डेरा।

माना छोटा-सा है ये जीवन का सफर,
पर है काम हमें कोई बडा कर जाना,
थककर, टूटकर बैठने का वक्त नहीं है अब,
मंजिल पाने तक, है कभी नहीं आराम फरमाना।

- संकेत सिंह
जमुई, बिहार

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